Friday, 15 March 2019

Poem : लक्ष्य भेद


लक्ष्य भेद

Courtesy: Trophy Store

लक्ष्य भेद की लगन को मैं
सीखने किस से जाऊं
कैसे लक्ष्य पाऊं, मैं अपना
किस को गुरु बनाऊं
किस को गुरु बनाऊं
लगा जो सोचने
चींटी का एक दल
निकला चीनी खोजने
एक एक चींटी,
अपने से भारी लेकर दाना
मुड़ी, जिस ओर था ठिकाना


Courtesy: 4to40
बार बार गिरती, चढ़ती
पर हार ना उसने मानी
मंजिल पर जाकर रुकुंगी
ये बात थी मन में ठानी

एक छोटी सी चींटी ने
सबक मुझको सिखा दिया
मंजिल पाने तक चलते जाना है
ये पाठ, मुझ को पढ़ा दिया
पर अथक परिश्रम ही केवल
पर्याप्त नहीं होता है,
मंजिल को पाने  में
मस्तिष्क भी घिसना होता है
सपनों को साकार बनाने में
काक ने लगाई ना होती बुद्धि


तो प्यास न उसकी बुझने पाती
Courtesy: YouTube

करता केवल परिश्रम तो
गगरी जल की गिर जाती
मंजिल कौन सी है अपनी
गर इसका ख़ुद को भान नहीं
कितना और किस ओर
परिश्रम करना है,
गर  है, इसका ज्ञान नहीं

तब व्यर्थ परिश्रम जाएगा
लक्ष्य नहीं पता, जिसको
वो लक्ष्य भेद ना पाएगा
मंजिल वो नहीं पाएगा