Friday, 22 May 2020

Poem : अमर प्रेम


अमर प्रेम



वट सावित्री, एक व्रत नहीं;
गाथा है ‌अमर प्रेम की।
सावित्री और सत्यवान की,
यह प्रेम नहीं, हीर रांझा सा
सोनी और महिवाल का।
यह प्रेम है, तपस्या का,
समर्पण का, विश्वास का।
यहाँ, सपनों का महल है;
कोमल सी राजकुमारी भी,
करवटें लेती, जिन्दगी, 
और उसमें आती दुश्वारी भी।
कैसे ढल जाती है,
बेटी ससुराल में,
जी लेती है, हर हाल में।
पति का साथ छूट जाएगा,
इससे घबराती नहीं,
कोने में बैठ सिसकती नहीं,
सकुचाती नहीं।
चल देती है, साथ वो भी,
जहाँ कोई जा ना सका।
डिगा देती है, यमराज को,
जिनको कोई हिला न सका।
साथ पाकर जीवन पति का,
उसने सबको बता दिया।
प्रेम, केवल पाना-खोना नहीं;
प्रेम,जीत जाने का नाम है,
अमर प्रेम, जीवनसाथी को;
 जीवन वापस दिलाने का नाम है।।