आज आप सब के साथ मुझे दरभंगा, बिहार की शुभ्रा संतोष जी की कविता को साझा करते हुए अपार प्रसन्नता हो रही है।
शुभ्रा जी एक मंझी हुई कवयित्री है, बहुत से मंच में उनकी कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं।
तो आइए, उनकी कविता का आनंद लेते हैं।
अखबारों से बंद दरवाज़ा
एकबार फिर से आओ
कूंजी घुमा के देखें
बंद दरवाज़े की अनदेखी
परतों को खोलें।
सदियों से
दुनियां का स्वरूप
ख़बरें जो
गढ़ रहीं
उस सोच की चादर के
सिलवटों को झटकें।
स्याह रंग के कहकरे
दीमको के घर बने
जेहन के दरवाज़े
घिस घिस कर
खोखले हुए।
झटक कर धूल सारी
आहिस्ते आहिस्ते
अंदर के इंसान को
एकबारगी टटोलें।
निकल कर बासी खबरों
के दायरों से
दरवाज़े के सांकल को
पुरजोर से खोलें।
पढ़ रहे जो या समझ रहें जो
दुनिया को आज-कल
दरवाज़े के उस तरफ
कोई और ही
दुनिया आपकों दिखें।
क्या पता
कोई और ही
हवा चल रही हो वहां।
क्या पता
कोई और ही
दुनियां पल रही हो वहां।
Disclaimer :
इस कविता में व्यक्त की गई राय लेखिका के व्यक्तिगत विचार हैं। जरूरी नहीं कि वे विचार या राय Shades of Life के विचारों को प्रतिबिंबित करते हों। कोई भी चूक या त्रुटियां लेखक की हैं और Shades of Life उसके लिए कोई दायित्व या जिम्मेदारी नहीं रखता है।