ठीकरा
प्यारेलाल एक office में चपरासी के पद से retire हुआ था, पर बड़े परिवार के कारण अब घर-घर जाकर अंडे बेचता था।
उसके 6 लड़कियां और 4 लड़के थे।
लड़कियों की शादी करते-करते उसकी लगभग पूरी जमा-पूंजी खत्म हो गई। फिर लड़कों में सिवाय अनवर के सारे नकारा-नालायक निकले।
अनवर भी कोई बहुत लायक़ नहीं था, पर कह-सुन कर, मिन्नतें कर के प्यारेलाल ने उसे अपनी जगह चपरासी लगवा दिया था।
अब आजकल तो चपरासी बनने के लिए पढ़ा-लिखा होना अनिवार्य हो गया था, और अनवर के अलावा सारे अनपढ़-गंवार ही थे।
प्यारेलाल ने तो बेटों के पैदा होने पर सोचा था कि सारे पढ़-लिख जाएं, उसके दो हाथ, आठ हाथों को लायक़ बना लें, पर सोचे से कुछ होता है?
परिवार इतना बड़ा, खर्चा बेशुमार, कमर तोड़ कर रख दी, पहले प्यारेलाल की और अब अनवर की।
बेचारा लायक़ होने की सज़ा भुगत रहा था, अपने पिता के इतने बड़े परिवार को खींचने के लिए सबको उसका कंधा ही दिखता।
बहनें भी आए दिन आ जातीं, और जातीं तो अपने ससुराल का वास्ता दे कुछ न कुछ ले जाने की दुहाई देतीं।
अरे एक-दो बहन होती, तो वो भी खुशी-खुशी करता, पर यहां तो line लगी थी, हर बहन महीने में दो बार ही आती, पर उसका तो पूरा साल लेन-देन में ही चला जाता।
प्यारेलाल की पत्नी ‘रज्जो’ बोली, “अनवर कमाने लगा है, अब इसका निकाह कर सकते हैं। बस यही है, जिसको कोई अपनी लड़की दे भी देगा, बाकी तो नकारे हैं।”
कम से कम एक बहू तो आए घर में, तो मेरी ज़िम्मेदारी पूरी हो। पर अनवर पूरा मुकर गया, “जिम्मेदारी! आपने इतनी जिम्मेदारियाँ जो मेरे सिर पर रख छोड़ी हैं, वो तो इस जन्म में पूरी होंगी नहीं, मैं एक और को ले आऊं। फिर आप का कौन-सा मन बहू को देख भर जाएगा, फिर अपने जैसे ही हम लोगों के भी मनभर बच्चे पैदा करवा देना।”
“अरे, अल्लाह की नियामत की ऐसे तौहीन नहीं करते, तू क्या जाने औलाद का मिलना, नसीब की बात होती है।”
“आज हाय, हरकतें खुद करो और सिर पर ठीकरा अल्लाह के फोड़ दो।”
“किसी ने नहीं कहा कि खाने को न हो, तब भी बस औलादें पैदा करते रहो, देख लो अब्बू का हाल, बुढ़ापे में भी अंडे बेच रहे हैं, नालायकों से इतना तक तो होता नहीं कि वो बेच आएं, और अम्मी चाहती हैं घर में एक और को ले आऊं।”
प्यारेलाल खांसते हुए बोले, “अरे नहीं, इनको अंडे बेचने को नहीं बोल सकता, आधे खा जाएंगे, और कुछ फोड़ देंगे। फायदा कुछ होगा नहीं, नुकसान ही करा देंगे। रोज़ की झीन-झीन, झांय-झांय के साथ ही दिन बीतता।”
एक दिन अनवर का accident हो गया और एकमात्र कमाने वाला भी बिस्तर पर आ गया। जिंदगी बद् से बद्तर हो चली।
अब तो सरकार द्वारा मिलने वाली सुविधाओं पर परिवार चल रहा था और बड़े परिवार के होने का जो ठीकरा, पहले अल्लाह पर फोड़ा जा रहा था, अब परिवार के भूखे मरने का ठीकरा सरकार पर फोड़ने लगे कि सरकार inefficient है, अपना कार्य ठीक से नहीं कर रही है, हम लोगों को भरपेट खाना भी नहीं मिल रहा…
Disclaimer:
All characters and events in this story are entirely fictitious. Any resemblance to actual people, living or dead, or actual events is purely coincidental. The story doesn't intend to disrespect any individual/community.
