Friday, 20 March 2020

Poem : डर के साये में

डर के साये में


डर के साये में सब,
कुछ यूँ, जी रहे हैं;
जिसमें अगले पल का भी
कुछ इल्म ही नहीं है
कभी प्रदूषण डरा रहा है, 
कभी दंगों से खौफ़ज़दा हैं;
कुछ जान बच गयी थी,
तो कोरोना आ धमका है
सब काम बंद है,
बाज़ार भी तो ठप्प है;
बच्चे खेलने को तरस रहे हैं,
साहब ऑफिस ना जाने से,
घर में ही बरस रहे हैं
मेमसाहब को भी,
बस एक बात का डर है;
कहीं कामवाली बैठ ना जाए,
तो हो जाएगी कहर है
इन सब बंद के आलम में,
क्या कोई बता सकता है:
कब तक रहेगी,
सब के घर रसद* है?
इतना इस समय हर एक करना,
अन्न को बिल्कुल नष्ट मत करना;
जिस-जिस देश में अन्न बचेगा,
जहां में बाकी बस उसका ही अस्तित्व रहेगा


*रसद = राशन 

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