Tuesday, 22 September 2020

Poem : भाषा की आशा

आज आप सब के साथ मुझे कटनी की किरण मोर जी की कविता को साझा करते हुए अपार प्रसन्नता हो रही है

अपनी कविता के माध्यम से वो हम सबके समक्ष, हमारी राष्ट्रीय भाषा हिन्दी की आशा को व्यक्त कर रहीं हैं।

भाषा की आशा



आज हमारी हिन्दी हमसे,

करती है ये आशा

कब वो पूरा मान मिले,

कि ये भारत की भाषा।


हम रखवाले बन न सके,

हमने ही मखौल उड़ाया

आधी छोड़ एक को झपटे,

अधकचरा कहलाया।


इतनी सुघड़,सरल बोली है 

सरस लगे परिभाषा

कब वो पूरा मान मिले 

कि ये भारत की भाषा।


हम अज्ञानी कैसे हैं, 

इतना भी समझ न पाए।

हिन्दुस्तान में जन्में 

खुद हम हिन्दी का मान घटाएं


रची बसी जो इस भूमि में 

संस्कृति की अभिलाषा

कब वो पूरा मान मिले 

कि ये भारत की भाषा।


जितना भी तुम ज्ञान पाओगे 

वो उतना ही कम है

अपनी बोली भाषा को भूले हैं

 बस ये गम है


दूजे को दो मान मगर 

अपने को दो न हताशा

कब वो पूरा मान मिले 

कि है भारत की भाषा।



Disclaimer:

इस पोस्ट में व्यक्त की गई राय लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं। जरूरी नहीं कि वे विचार या राय इस blog (Shades of Life) के विचारों को प्रतिबिंबित करते हों। कोई भी चूक या त्रुटियां लेखक की हैं और यह blog उसके लिए कोई दायित्व या जिम्मेदारी नहीं रखता है।


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