Monday, 19 November 2018

Article : देवउठनी एकादशी व तुलसी विवाह


देवउठनी एकादशी व तुलसी विवाह



देवोत्थान एकादशी और तुलसी विवाह का हिन्‍दू धर्म में विशेष महत्‍व है. ऐसी मान्‍यता है कि सृष्टि के पालनहार श्री हरि विष्‍णु चार महीने तक सोने के बाद दवउठनी एकादशी के दिन जागते हैं. इसी दिन भगवान विष्‍णु शालीग्राम रूप में तुलसी से विवाह करते हैं.देवउठनी एकादशी से ही सारे मांगलिक कार्य जैसे कि विवाहनामकरण, मुंडन, जनेऊ और गृह प्रवेश की शुरुआत हो जाती है.
तुलसी विवाह का महत्व

तुलसी का विवाह कराना बेहद शुभ माना जाता है. मान्यता है कि तुलसी विवाह से घर में सकारात्मक वातावरण बना रहता है. साथ ही भक्तों को सबसे बड़े दान यानी कन्यादान का सुख प्राप्त होता है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जिस घर में बेटी ना हो वो तुलसी विवाह करे.

तुलसी जी का विवाह देवउठनी में शालिग्राम से किये जाने के पीछे की भी एक कथा है, जो हम आपको बताते हैं-

तुलसी विवाह की कथा

भगवान शिव और पार्वती का एक तीसरा पुत्र था. इस पुत्र का नाम जलंधर था, जो असुर प्रवत्ति का था. वह खुद को सभी देवताओं से ऊपर समझता था. जलंधर का विवाह भगवान विष्णु की परम भक्त वृंदा से हुआ. वो जितनी श्रद्धा से विष्णु जी की पूजा-अर्चना करती थीं, उतनी ही बड़ी वो पतिव्रता भी थीं। इसी कारण जलंधर अजय हो गया। अपने अजय होने पर जलंधर को अभिमान हो गया, वो बार-बार अपनी शक्तियों से देवताओं को परेशान करता, लेकिन देवता वृंदा के पतिव्रत धर्म की वजह से जलंधर को मारने में असफल रहते. एक बार सभी देवता इस समस्या को लेकर भगवान विष्णु के पास गए और हल मांगा।
भगवान विष्णु जी ने अपनी माया से जलंधर का रूप धारण कर लिया, और छल से वृंदा के पतिव्रत धर्म को खंडित कर दियाइससे जलंधर की शक्ति क्षीण हो गयी। इसके बाद त्रिदेव जलंधर को मारने में सफल हुए।
इस छल को जान वृंदा ने विष्णु जी को पत्थर का बन जाने का श्राप दे दिया। इस पर सभी देवताओं ने श्राप वापस लेने की विनती की, जिसे वृंदा ने माना और अपना श्राप वापस ले लिया. लेकिन भगवान विष्णु जी ने प्रायच्छित के लिए खुद का एक पत्थर का स्वरूप बनाया। यही पत्थर शालिग्राम कहलाया.
वृंदा अपने पति जलंधर के साथ सती हो गई और उसकी राख से तुलसी का पौधा निकला. इतना ही नहीं भगवान विष्णु ने अपना प्रायच्क्षित जारी रखते हुए तुलसी को सबसे ऊंचा स्थान दिया और कहा कि, मैं तुलसी के बिना भोजन नहीं करूंगा।  
इसके बाद सभी देवताओं ने वृंदा के सती होने का मान रखा और उसका विवाह शालिग्राम के कराया. जिस दिन तुलसी विवाह हुआ उस दिन देवउठनी एकादशी थी. इसीलिए हर साल देवउठनी के दिन ही तुलसी विवाह किया जाने लगा 

चावल एकादशी में वर्जित क्यों 

एकादशी के दिन चावल क्यों नहीं खाते | एकादशी के दिन चावल खाना क्यों वर्जित है| एकादशी को लेकर ऐसी मान्यता है क‌ि इस द‌िन चावल और चावल से बनी चीजें नहीं खानी चाह‌िए। आइये जानें यह मान्यता क्यों है?
एकादशी व्रत का शास्‍त्रों और पुराणों में बड़ा महत्व बताया गया है। इस व्रत को लेकर कई न‌ियम और मान्यताएं भी हैं इनमें चावल नहीं खान भी शाम‌िल है। इसके पीछे धार्म‌िक कारण के साथ ही साथ वैज्ञान‌िक कारण भी बताया जाता है।

धार्मिक कारण

धार्म‌िक दृष्ट‌ि से एकादशी के दिन चावल खाना अखाद्य पदार्थ अर्थात नहीं खाने योग्य पदार्थ खाने का फल प्रदान करता है।
पौराणिक कथा के अनुसार माता शक्ति के क्रोध से बचने के लिए महर्षि मेधा ने शरीर का त्याग कर दिया और उनका अंश पृथ्वी में समा गया। चावल और जौ के रूप में महर्षि मेधा उत्पन्न हुए इसलिए चावल और जौ को जीव माना जाता है।
जिस दिन महर्षि मेधा का अंश पृथ्वी में समाया, उस दिन एकादशी तिथि थी। इसलिए एकादशी के दिन चावल खाना वर्जित माना गया। मान्यता है कि एकादशी के दिन चावल खाना महर्षि मेधा के मांस और रक्त का सेवन करने जैसा है।

वैज्ञानिक कारण

वैज्ञानिक तथ्य के अनुसार चावल में जल तत्व की मात्रा अधिक होती है। जल पर चन्द्रमा का प्रभाव अधिक पड़ता है। चावल खाने से शरीर में जल की मात्रा बढ़ती है इससे मन विचलित और चंचल होता है। मन के चंचल होने से व्रत के नियमों का पालन करने में बाधा आती है। एकादशी व्रत में मन का निग्रह और सात्विक भाव का पालन अति आवश्यक होता है इसलिए एकादशी के दिन चावल से बनी चीजें खाना वर्जित कहा गया है।

पूजा में उपयोगी सामान : एकादशी की पूजा करते समय भी अक्षत (चावल) का प्रयोग नहीं किया जाता है, बल्कि इसमे चावल के स्थान पर तिल रखा जाता है।

साथ ही तुलसी विवाह के समय मंडप के लिए गन्ने का प्रयोग करते हैं। चुनरी व सुहाग के भी सभी समान चढ़ाये जाते हैं। इसमे मौसमी फलों का भोग लगाया जाता है, जैसे आँवला, सिंघाड़। फलों के अलावा कुछ सब्जियाँ जैसे मूली, बैगन, खीरा का भी भोग लगाया जाता है, मखाने की खीर का भी विशेष स्थान है।

जिस चौकी पर देवता बैठाते हैं, उसे हिला कर देवता को ये मंत्र 3 बार कह कर जगाया जाता है, और सभी शुभ कार्य प्रारम्भ किए जाते हैं।
उठो देव, बैठो देव
पांवड़िया चटकाओ देव
कुवांरों का ब्याह करो
ब्याहन का गौना
गौनन को पुत्र दो


देवउठनी के पावन अवसर पर आप
के सभी मंगलकार्य सम्पन्न हों

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