Saturday 2 November 2024

India's Heritage : गोवर्धन पूजा

दीपोत्सव का पांच दिवसीय त्यौहार पूरे हर्षोल्लास से मनाया जा रहा है।

जिसका आज चौथा दिन है। इसे कुछ जगहों पर पड़वा या परिवा के रूप में मनाया जाता है। 

वही ब्रज से जुड़े प्रांत और शहरों में जहां-जहां भी श्रीकृष्ण जी की पूजा-अर्चना को प्राथमिकता दी जाती है, वहां इसे गोवर्धन पूजा के रूप में मनाया जाता है।

गोवर्धन पूजा क्यों की जाती है, उसके पीछे क्या कारण है? और किस युग से यह प्रारंभ हुई? 

यह सब बहुत ही रोचक और अनुकरणीय है, जिसे स्वयं भगवान श्रीकृष्ण जी ने सार्थक कर के दिखाया है।

गोवर्धन पूजा

गोवर्धन पूजा के सम्बन्ध में एक लोकगाथा प्रचलित है। 

कथा यह है कि देवराज इन्द्र को अभिमान हो गया था। इन्द्र का अभिमान चूर करने हेतु भगवान श्री कृष्ण, जो स्वयं लीलाधारी श्री हरि (विष्णु) के अवतार हैं, उन्होंने एक लीला रची।

बात द्वापर युग की है, वह युग कृषि प्रधान युग था। लोगों की जीविका का साधन, कृषि, मवेशी पालन, दुग्ध (दूध) उत्पादन इत्यादि था। अतः उस समय इन्द्र देव को देवताओं में विशेष स्थान प्राप्त था।

चलिए, अब देखते हैं, लीलाधर श्री कृष्ण जी की अद्भुत लीला की कथा...

प्रभु की इस लीला में यूं हुआ, कि एक दिन उन्होंने देखा के सभी बृजवासी उत्तम पकवान बना रहे हैं और किसी पूजा की तैयारी में जुटे हुए हैं।

श्री कृष्ण ने बड़े भोलेपन से मैया यशोदा से प्रश्न किया, "मैया, यह आप लोग किसकी पूजा की तैयारी कर रहे हैं?"

कान्हा की बातें सुनकर मैया बोलीं, "लल्ला, हम देवराज इन्द्र की पूजा के लिए अन्नकूट की तैयारी कर रहे हैं।"

मैया के ऐसा कहने पर कान्हा बोले, "मैया, हम इन्द्र की पूजा क्यों करते हैं?"

मैया ने कहा, "वह वर्षा करते हैं, जिससे अन्न की उपज होती है, उनसे हमारी गायों को चारा मिलता है।"

कान्हा बोले, "हमें तो गोर्वधन पर्वत की पूजा करनी चाहिए, क्योंकि हमारी गाये वहीं चरती हैं, इस दृष्टि से गोर्वधन पर्वत ही पूजनीय है और इन्द्र तो कभी दर्शन भी नहीं देते व पूजा न करने पर क्रोधित भी होते हैं, अत: ऐसे अहंकारी की पूजा नहीं करनी चाहिए।"

लीलाधारी की लीला और माया से सभी ने इन्द्र के स्थान पर गोवर्घन पर्वत की पूजा की।

देवराज इन्द्र ने इसे अपना अपमान समझा और मूसलाधार वर्षा आरम्भ कर दी।

प्रलय के समान वर्षा देखकर सभी बृजवासी कान्हा को कोसने लगे कि, सब इनका कहा मानने से हुआ है। 

तब मुरलीधर ने मुरली कमर में डाली और अपनी कनिष्ठा उंगली पर पूरा गोवर्घन पर्वत उठा लिया और सभी बृजवासियों को उसमें अपने गाय और बछडे़ समेत शरण लेने के लिए बुलाया।

इन्द्र कृष्ण की यह लीला देखकर और क्रोधित हुए, फलत: वर्षा और तेज हो गयी।

इन्द्र के मान-मर्दन के लिए तब श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से कहा कि आप पर्वत के ऊपर रहकर वर्षा की गति को नियन्त्रित करें और शेषनाग से कहा आप मेड़ बनाकर पानी को पर्वत की ओर आने से रोकें।

इन्द्र निरन्तर सात दिन तक मूसलाधार वर्षा करते रहे, तब उन्हें लगा कि उनका सामना करने वाला कोई आम मनुष्य नहीं हो सकता।अत: वे ब्रह्मा जी के पास पहुंचे और सब वृतान्त कह सुनाया।

ब्रह्मा जी ने इन्द्र से कहा, "आप जिस कृष्ण की बात कर रहे हैं, वह भगवान विष्णु के साक्षात अवतार हैं और पूर्ण पुरूषोत्तम नारायण हैं।"

ब्रह्मा जी के मुख से यह सुनकर इन्द्र अत्यन्त लज्जित हुए और श्री कृष्ण से कहा, "प्रभु, मैं आपको पहचान न सका, इसलिए अहंकारवश भूल कर बैठा। आप दयालु और कृपालु हैं, इसलिए मेरी भूल क्षमा करें। इसके पश्चात देवराज इन्द्र ने मुरलीधर की पूजा कर उन्हें भोग लगाया।"

-----------समाप्त-----------


इस पौराणिक घटना के बाद से ही गोवर्धन पूजा की जाने लगी। बृजवासी इस दिन गोवर्धन पर्वत की पूजा करते हैं। गाय-बैल को इस दिन स्नान कराकर उन्हें रङ्ग लगाया जाता है, व उनके गले में नई रस्सी डाली जाती है। गाय और बैलों को गुड़ और चावल मिलाकर खिलाया जाता है।

इस पूरे वृतांत को हिन्दी के कुछ उच्च कोटि के शब्दों से सहसंबद्ध करके अत्यंत ही संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है :


सबल स्वर्गिक-सत्ता के अकारण अहंकार को सामूहिकता की कनिष्ठिका से परास्त कर भाग्य-लेख को कर्मयोग के विजय वाक्य द्वारा अपदस्थ करने वाले गिरिधर मुरलीधर का पुरुषार्थ-पर्व कहलाता है गोवर्धन पूजा।

अर्थात् इन्द्र देव (जो कि स्वर्ग के राजा हैं) के बिना किसी बात के अहंकार को, भगवान श्रीकृष्ण जी ने अपनी कनिष्ठ (छोटी) उंगली पर गोवर्धन पर्वत उठाकर भाग्य लेख को कर्म योग द्वारा परास्त कर  विजय प्राप्त की थी। ऐसे गिरिधर मुरलीधर (भगवान श्री कृष्ण जी) के पुरुषार्थ पर्व को गोवर्धन पूजा के रूप में मनाया जाता है, जिसकी सभी को ढेरों शुभकामनाएँ।