Friday, 31 August 2018

Story Of Life : जीवनसंगिनी (भाग-2)


अब तक आपने पढ़ा कि पिया, रतन और अपने ससुराल के साथ बहुत खुश थी। लेकिन आए दिन रतन की नौकरी छूटने से एक तनाव सा रहता था। अब आगे...

जीवनसंगिनी (भाग-2)

पर पूरा परिवार रतन के लिए परेशान रहने लगा, और अब तक सब ये भी समझ गए थे कि रतन से private job के और ज्यादा धक्के खाना नहीं हो पाएगा
पर इन सब में इतनी देर हो चुकी थी, कि रतन किसी अच्छी government job के लिए भी योग्य नहीं रह गया था।

पिया इसी धुन में लगी रहती कि, कैसे अपने पति को योग्य सिद्ध किया जाए, क्योंकि इतनी jobs छोड़ने के कारण अब रतन भी, अंदर ही अंदर कहीं टूटता जा रहा था। उसने सब जगह आना जाना भी छोड़ दिया था।
उन लोगों का बेटा भी बड़ा होने लगा था। पिया का मन था, कि जब तक बेटा समझने लायक हो, तब तक रतन एक जिम्मेदार पिता बन जाए।
बहुत सोचने और अपने पिता से विचार-विमर्श के पश्चात पिया ने रतन से अपना खुद का business करने को कहा।
रतन बोला तुम भी पिया, businessman की बेटी हो ना, तो उसी की सलाह दोगी। मुझसे private job होती नहीं है, तुम सोचती हो, business हो जाएगा।
वो बोली अपना खुद का काम होगा, कोई आपको जज करने के लिए नहीं होगा। आपकी मेहनत में कोई कमी नहीं है, फिर एक बार इसे भी करने में क्या हर्ज है?
फिर मैं हूँ ना आपके साथ। मैं businessman  की बेटी हूँ, तो खून कुछ तो असर दिखाएगा, शायद मिल के कुछ अच्छा ही कर लें।
पिया की ऐसी उत्साह से भरी बातें सुन के रतन को भी जोश आने लगा। बोला अच्छा ठीक है, कर लेते हैं, एक बार।   
पर तुमने ये भी सोचा ही होगा, क्या करना है, क्या सोने चाँदी की दुकान खुलवाओगी?....  और पैसा?.....
वो कहाँ से आएगा? मेरे पिता जी तो principal थे, तो उनके पास तो ज्यादा धन राशि है नहीं।
क्या तुम्हारे पिता जी देंगे?
नहीं कोई नहीं देगा, क्योंकि मैं किसी से मांगने भी नहीं जा रही हूँ। मुझे अपने सपनों का महल बनाने में अपने या आपके पिता की चैन की नींद नहीं उड़ानी है।
हे भगवान, तो तुमने सोचा क्या है? अब रतन का धैर्य जवाब दे रहा था।
पिया ने रतन को योग्य बनाने के लिए आखिर ऐसा क्या सोचा जिसमें किसी की मदद भी नहीं लेनी पड़ेगी, जानने के लिए पढ़ें जीवनसंगिनी (भाग-3)

Thursday, 30 August 2018

Kids Story : पैसे का पेड़

पैसे का पेड़


सुबोध के बाबू जी किसान थे। उनका सारा समय खेतों में ही गुजरता। सुबोध को सारे दिन सिर्फ माँ का ही साथ मिलता। वो घर में ही माँ के आगे पीछे घूमा करता।
जब वो छह साल का हो गया, तब एक दिन सुबह खाना जल्दी नहीं बन पाया था। तो माँ खाना देने खेतों में जा रही थी।सुबोध ने माँ से कहा, मुझे भी बाबू जी के पास जाना है।
माँ उसे अपने साथ खेतों में ले गयी। उस दिन पहली बार सुबोध ने देखा कि उसके पिता क्या करते हैं। उस दिन बाबू जी खेतों में बीज डालने का काम कर रहे थे। उन्हें देख कर वो बोला, बाबू जी आप क्या कर रहे हैं?
वो बोले, मैं बीज बो रहा हूँ। उससे क्या होगा? बाबू जी बोले, उससे पौधे निकलेंगे।
तब फिर क्या होगा? सुबोध का कौतूहल बढ़ता जा रहा था। जब फसल पूरी बढ़ी हो जाएगी, तब उसे बाजार में बेच देंगे। और उससे तुम्हें जो चाहिए, वो हम लोग खरीद लेंगे।
इसमे कितने दिन लग जाएंगे? वो बोले कम से कम छह महीने तो लग ही जाएंगे। सुबोध मायूस हो गया, इतने दिन बाद.... 
उसने बढ़ी ही जिज्ञासा से पूछा, क्या पैसे का पेड़ नही लगा सकते?
बाबू जी हँसने लगे, बोले बेटा, हमने तो आज तक नहीं लगाए, तुम लगाना, बड़े होकर लगाना।
सुबोध के मन में बात बैठ गयी। सुबोध ने सोचा बाबू जी को ठीक से पैसे का पेड़ लगाना नहीं आता होगा, तभी तो वो पैसे का पेड़ नहीं लगा पाते।
उसने घर से एक कलश लिया, और घर के बाहर चार दिन तक गड्ढा खोदता रहा, जब कलश उसके अंदर चला गया, तब उसने अपनी गुल्लक में जितने पैसे थे, सारे डाल कर उसे प्लेट से ढक दिया,और उस पर मिट्टी डाल  दी।
अब तो उसने नियम बना लिया, उसे जहां कहीं से पैसे मिलते, वो कलश में डाल देता।   
बारिश का मौसम आ गया, पर पूरे महीने एक बूंद भी पानी नहीं टपका। खड़ी फसल सूखने लगी, बाबू जी को औने-पौने दाम में फसल बेचनी पड़ी। खाने-पीने के समान लाने में ही सारा पैसा खत्म हो गया। अगली फसल के लिए वो अच्छे बीज नहीं ला पाये।
लौटते हुए बाबू जी, साहूकार से पैसा मांगने गए भी, पर वो नहीं था, उन्हें पैसे नहीं मिल पाये।  
शाम को सुबोध, बाबूजी के पास आकर दुखी हो कर बोला, इस बारिश ने तो मेरा भी पेड़ नहीं होने दिया।
बाबू जी चौंके, एँ, तुमने कौन सा पेड़ लगाया था? उसने बड़ी मासूमियत से बोला, पैसों का....  
आइये दिखाता हूँ। मैंने बहुत सारे बीज डाले थे, पर पेड़ नहीं हुआ।
जब बाबू जी ने कलश निकाला, वो पैसों से भरा हुआ था, माँ भी आ गयी थी, देख कर गुस्साई, रे दुष्ट यहाँ छिपाया हुआ है, और मैं छह महीने से फिक्र में घुली जा रही थी कि कलश ना जाने कौन चोर ले गया। मैं तो इसलिए लाया था, क्योंकि यही सबसे बड़ा था, मुझे बहुत सारे बीज जो डालने थे, सुबोध डर के बोला। पर बाबू जी ने नन्हें सुबोध को गले लगा लिया, बोले आज मेरे बेटे ने मुझे पैसों का पेड़ लगाना सीखा दिया।
संचय करने से ही पैसों का पेड़ लगाया जा सकता है। और सबको अपने जीवन में संचय करके पैसों का पेड़ लगाना चाहिए।

वो पैसों से अच्छे बीज ले आए। अगली फसल बहुत अच्छी हुई। फसल से मिले पैसों के कुछ भाग से बाबू जी ने भी पैसों का पेड़ लगाना शुरू कर दिया (अर्थात कुछ पैसे संचय के लिए भी रखने शुरू कर दिए)। और फिर कभी उन्हें पैसों के लिए किसी से मदद नहीं मांगनी पड़ी।  

Wednesday, 29 August 2018

Story Of Life : जीवनसंगिनी

जीवनसंगिनी


पिया के पिता की सोने-चाँदी की दुकान थी, पर पिया का मन हमेशा कॉपी-किताबों में ही उलझा रहता था। सब बोलते हम सुनारों के यहाँ ये मुनीम जी हो गयीं हैं, इसकी कॉपी-किताब तो कभी बंद ही नहीं होती है।
विवाह योग्य हो चली बेटी के लिए जब पिता सुयोग्य वर तलाशने लगे तो, उनके एक दोस्त बोले, मेरी मा, तो बिटिया का विवाह बंसल जी के बेटे से करवा दो।
अरे कौन बंसल जी?
वही अपने इंटर कॉलेज के principal जी, भला परिवार है, उनका बेटा रतन तो हद का सीधा है। एक private company में job करता  है।
फिर अपनी बिटिया को पढ़ने का बेहद शौक भी है। Teacher का घर है, पढ़ने लिखने का उसे खूब माहौल मिल जाएगा।
पिता जी को अपने मित्र की बात पसंद आ गयी। देखना दिखाना हुआ, दोनों तरफ से तुरंत हाँ हो गयी।
पिया तो अत्यंत प्रसन्न थी, उसे अपने  मन चाह ससुराल मिल रहा था। बड़े ही हर्षो उलास के साथ विवाह सम्पन्न हुआ।
पिया ने जैसा सुना था, पूरा परिवार उतना ही अच्छा था, पिया भी सबमे ऐसे घुलमिल गयी कि उनसे अलग नहीं लगती थी, सभी अत्यंत प्रसन्न थे।
पर कुछ ही दिनों में पिया को एक नयी समस्या का सामना करना पड़ा।
रतन के अत्यधिक सीधे होने के कारण, वो private job के द्वंद-फंद नहीं कर पता था, जिसके कारण उसे जल्दी ही अपनी job से हाथ धोना पड़ा। पिया ने सबसे बात की, और अपने भी job करने की इक्छा व्यक्त की, सुलझा हुआ परिवार था, और रतन की job भी चली गयी थी।
सबने पिया की बात मान ली, अब पिया भी स्कूल में पढ़ाने लगी थी।
job छूटते ही रतन नें दूसरी job join कर ली, पर उसमे भी कुछ साल ही कट पाये।
अब तो रतन के साथ आए दिन यही सिलसिला शुरू हो गया। वो job join करता, कुछ साल टिकता, फिर उसे job छोडनी पड़ती, या उसे निकाल दिया जाता। इधर पिया की लगन उसे आगे बढ़ाती जा रही थी,वो inter college की teacher से degree college की teacher बन गयी।
कभी भी पिया ने अपनी सफलताओं का अभिमान नहीं किया और ना ही रतन की असफलतों के लिए उसे नीचा दिखाया।
पर पूरा परिवार......
क्या पिया की बढ़ती हुई सफलता, और रतन की असफलता ने परिवार की सोच बदल दी.....  पढ़ते हैं जीवनसंगिनी भाग-२ में   

Tuesday, 28 August 2018

Article : Vote - एक सही चुनाव।

Vote - एक सही चुनाव।

आरक्षण article को लोगों द्वारा बहुत पसंद किया गया। पर उसपे मिली प्रतिक्रियाओं में एक मुद्दा सामने आया, कि अब आरक्षण देश और समाज की विसंगतियों को दूर करने का उपाय नहीं रह गया है। यह सिर्फ एक वोट-बैंक की राजनीति के हित में इस्तेमाल किए जाने वाला हथियार बन गया है। साथ ही एक और विचार सामने आया कि general caste में unity नहीं है।
बहुत सोचने पर ये ही समझ आया, कि हम लोग शुरुआत से ही गलत हैं।
जब vote appealing की बारी आती है, तब हम general caste वाले discussion तो बहुत करते हैं, ये योजना होनी चाहिए, वो योजना होनी चाहिए। सरकार ये ठीक से नहीं कर रही, इसे ऐसा करना चाहिए, या वैसा करना चाहिए।
पर एक सही candidate का चुनाव करने के लिए हम vote डालने नहीं जाएंगे। क्योंकि हमे केवल छींटाकशी ही करनी आती है, vote तो अधिकांशतः गरीब लोग या आरक्षित जाति के लोग ही देने जाते हैं।
ऐसा लगता है कि हम अगर किसी को vote करते दिख जाएंगे, तो हमारी तौहीन हो जाएगी।
तो फिर जनाब! रोना किस बात का है? जो बोओगे, काटोगे भी वही।
जिसका candidate चुना जाएगा, फिर आगे सुना भी तो उसका  ही जाएगा।
मेरा ये कहना, उन चंद लोगों से बिलकुल नहीं है, जो vote देने जाते हैं। पर आप ही बताइये, उन चंद लोगों के करने से कुछ होगा? सोचना तो सभी को ही पड़ेगा। समाज का सही प्रतिनिधि चुनने के लिए समाज का सही और पूरा प्रतिनिधित्व होना भी चाहिए।
जब अटल जी ब्रह्मलीन हुए, तो बहुतों ने उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दी। पर, उस पर ये सवाल उठाने के लिए उस समय social media पर एक message भी काफी viral हुआ था, उनके जाने के बाद दुख मनाने वालों- तब साथ दिया होता, तो शायद देश आज कुछ और ही होता
बिलकुल, अच्छे नेताओं को खोने के बाद केवल दुख मनाने से कुछ नहीं होता है। जब वे देश की सेवा में सेवारत हैं, तब ही उनका साथ देकर, देश को उन्नतशील बनाएँ।
सभी देशभक्तों को सच्ची श्रद्धांजली यही होगी कि, हम सही नेता का चुनाव करें। उनको सही समय पर वोट करें, और देश के विकास में उनको सहयोग प्रदान करें।
अब सवाल ये उठता है कि उचित उम्मीदवार है कौन?
बहुत से राजनेता अपने अपने कार्यों को प्रदर्शित कर चुके हैं।
किसी को भी ये समझाने की आवश्यकता नहीं है, कि किसे चुना जाना चाहिए।
किया गया काम खुद चीख-चीख कर बता रहा है, कि किसे चुना जाना चाहिए।
जिसकी सरकार के time में घोटाले ना हुए हों, देश के पास धन-सम्पदा बढ़ी हो, भारत का देश-विदेश में नाम हुआ हो, जिसने पनों के विकास के बारे में ना सोच के सब के विकास के बारे में सोचा हो, उसे ही चुना जाना चाहिए।
तो अब भी आप क्या सोच रहे हैं? समझ ही गए होंगे, किसे चुनना है? किसका साथ देना है? और अगर आप अभी भी सोच ही रहे हैं, तब ये तो सिद्ध होता ही है, कि आप उनमें शामिल थे, जिन्हें अटल जी के जाने का कोई दुख नहीं था। आपको ना तो देश के विकास से मतलब है, ना ही अच्छे नेताओं के चले जाने से।
आपको मतलब है तो, सिर्फ अपनी दाल- रोटी से।

वो भी ना जाने कितने दिनों तक मिलेगी, अगर हम सही वोट नहीं डालेंगे।