Monday 21 October 2019

Poem : कितना कुछ खोते हैं

आज मुझे इस कविता को, काव्य बद्ध करने की प्रेरणा, मेरी प्रिय सखी ऋतु श्रीवास्तव  द्वारा भेजे गए इस चित्र और सुबह के विवरण के लिए लिखी गई पंक्तियों से मिली है।

तो प्रिय सखी, आज की यह कविता आप के ही नज़र

कितना कुछ खोते हैं



जब हम सुबह
देर तक सोते हैं,
कभी सोचा है
कितना कुछ खोते हैं?

खोते हैं एक,
खुशनुमा सुबह।
जो देती हैं जिन्दगी को,
जीने की वजह।।

खोते हैं हम,
पक्षियों का कलरव।
जिन्दगी से भरा हुआ,
सबसे मीठा स्वर।।

खोते हैं हम,
पक्षियों के झुंड का दृश्य।
दिखती है एकता वहीं,
मनुष्यों में तो हो गई अदृश्य।।

खोते हैं हम,
मौसम की ठंडी सरगोशी।
जो चंचल मन को छूते ही,
दे देती ठहराव सी खामोशी।।


खोते हैं हम,
शुद्ध प्राण वायु।
जिसका ही नतीजा है,
हो रही है कम आयु।।


कितना कुछ मिलता है,
हमें सुबह सवेरे।
जिसके लिए हम,
कुछ भी नहीं चुकाते हैं।
फिर क्यों इतना कुछ,
मात्र चंद घंटों की,
नींद के लिए गंवाते हैं?