Monday 16 December 2019

Story Of Life : पड़ाव

पड़ाव

मैं अल्हड़ जवान अपनी ही मस्ती में रहा करती थी। युवा हो चुकी थी, पढ़ने में अच्छी थी, तो पढ़ाई और नौकरी भी जल्दी ही शुरू कर दी थी।

अब माँ के सर पर बस यही धुन सवार रहती कि अपनी लाडो के लिए योग्य वर तलाश कर दूँ।

मेरे लिए बहुत से रिश्ते आ रहे थे, आखिर रंग रूप और अच्छी नौकरी सब तो थी मेरे पास। रिश्ते भी एक से बढ़कर एक आ रहे थे, फिर भी कहीं बात नहीं बन रही थी

नहीं…. ना वहाँ से नहीं हमारे घर से ही हो रही थी। जानते हैं क्यों? क्योंकि मेरी और माँ की पसंद एक नहीं हो रही थी।

माँ की अनुभवी आंखे, घर-परिवार, लड़के की नौकरी, उसके ऊपर होने वाली ज़िम्मेदारी सब देख रही थीं। और मेरा बांवरा मन अपने hero जैसे राजकुमार को तलाश रहा था।


आखिर में माँ की पसंद को ही जीत मिल गयी, क्योंकि लड़का भी देखने में ठीक था।

शादी धूम से हो गयी, मैं अपनी ससुराल में खुश थी।वैसे बहुत सी बातों में मेरे पति और ससुराल वाले बिल्कुल अलग सोचते थे, पर माँ के संस्कारों ने adjust करना अच्छे से सिखाया था।

मेरी पहली anniversary आई, मन ने बड़े सपने सजाये थे। बहुत बड़े hotel से खूब लोगों को बुलाकर धूम से अपनी anniversary मनाएंगे।

पर सोच तो मिलती नहीं थी, तो मेरी सोच के विपरीत कथा का आयोजन किया गया। उसमें में भी घर के खास लोगों को बुलाया गया था, उन्हें भी बस प्रसाद देकर विदा कर दिया गया।

मन अन्दर तक आहात हुआ, जब इस बात को गुस्से के साथ पति से इज़हार की, तो वो बोले, तुम समझती क्यों नहीं हो? 

एक तो शादी में इतना खर्च हो गया, ऊपर से हमे खुशहाल देखकर लोग जलते, नज़र लगाते। फिर सब प्रसन्नता से चल रहा है, तो इसके लिए तो ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए, इसलिए माँ ने कथा का आयोजन किया था।

मन उनकी बात से खुश नहीं था, पर मानने के सिवा चारा भी क्या था।

ज़िंदगी.......

आगे पढ़ेंपड़ाव (भाग-2) में...