Saturday 30 September 2023

Story of Life : Tripti

आज कल पितृपक्ष चल रहा है। आज की यह कहानी पिता-पुत्र के संवाद पर आधारित है। इसमें पितरों की तृप्ति को सरलता से समझाया गया है।

तृप्ति



बुधना एक छोटा सा गाँव था जहां रंजन अपने पिता रघु के साथ रहता था। पितृपक्ष के दिन चल रहे थे। हर रोज ही गाँव में एक घर से पितृपक्ष भोज का आमंत्रण मिल रहा था। रोज़ ही पिता-पुत्र छक के भोजन करते और घर आकर आनंद से सो जाते। ऐसे ही हफ़्ता भर गुज़र गया। एक सुबह रघु गहरी सोच में बैठा हुआ था।

रंजन ने आकर उससे पूछा क्या हुआ पिताजी? आप क्या सोच रहे हैं?”

रघु बोला “बेटा, मेरी उम्र हो चली है, क्या जाने किस दिन ईश्वर के घर से बुलावा आ जाए। पर सोच रहा हूँ, क्या मेरी आत्मा को तृप्ति मिलेगी?

रंजन बोला “आप इस तरह की बातें क्यो कर रहें हैं?”

रघु ने कहा “पितृपक्ष में लोग कितना खर्चा करते हैं, लोगों को भोज पर बुलाते हैं, पंडितों को दान-दक्षिणा देते हैं, पता नहीं फिर भी उनके पितरों को मुक्ति मिलती होगी या नहीं।”

रंजन ने कहा “पिता जी मैं आपकी बातों को समझ नहीं पा रहा हूँ।”

रघु ने कहा “बेटा, मेरी छोटी-छोटी बहुत सी इच्छाएँ हैं। जैसे कभी दही खाने की इच्छा, कभी मीठा खाने की इच्छा, कभी समोसा खाने की इच्छा, कभी नया कपड़ा पहनने की इच्छा, कभी तेरे साथ कहीं घूमने जानी की इच्छा, कभी तुझसे बातें करने की इच्छा... ये छोटी छोटी इच्छाएँ मेरी पूरी नहीं हो पा रही हैं। अभी अगर मेरी मृत्यु हो जाती है, तो मेरी इच्छाएँ पूरी ना होने की वजह से मेरी आत्मा अतृप्त ही रह जाएगी। उसके बाद तेरे द्वारा पितृपक्ष में किए गए कार्यों से क्या वह तृप्त हो जाएगी?”

रंजन सोचते हुए और अपने पिता की बातों को समझते हुए “हम्म...”

रघु बोला “अगर...