लक्ष्य भेद
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लक्ष्य भेद की लगन को मैं
सीखने किस से जाऊं
कैसे लक्ष्य पाऊं, मैं अपना
किस को गुरु बनाऊं
किस को गुरु बनाऊं
लगा जो सोचने
चींटी का एक दल
निकला चीनी खोजने
एक एक चींटी,
अपने से भारी लेकर दाना
मुड़ी, जिस ओर था ठिकाना
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बार बार गिरती, चढ़ती
पर हार ना उसने मानी
मंजिल पर जाकर रुकुंगी
ये बात थी मन में ठानी
सबक मुझको सिखा दिया
मंजिल पाने तक चलते जाना है
ये पाठ, मुझ को पढ़ा दिया
पर अथक परिश्रम ही केवल
पर्याप्त नहीं होता है,
मंजिल को पाने में
मस्तिष्क भी घिसना होता है
सपनों को साकार बनाने में
काक ने लगाई ना होती बुद्धि
तो प्यास न उसकी बुझने पाती
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करता केवल परिश्रम तो
गगरी जल की गिर जाती
मंजिल कौन सी है अपनी
गर इसका ख़ुद को भान नहीं
कितना और किस ओर
परिश्रम करना है,
गर है, इसका ज्ञान नहीं
तब व्यर्थ परिश्रम जाएगा
लक्ष्य नहीं पता, जिसको
वो लक्ष्य भेद ना पाएगा
मंजिल वो नहीं पाएगा
NNic poem 👌
ReplyDeleteThank you so much for your admiring words, it boosts me
DeleteSahi baat hai...nice composition
ReplyDeleteThank you so much for your appreciation🙏
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