Wednesday, 22 April 2020

Poem: विनती धरा से

विनती धरा से


जो ना सोचा था कभी,
वो अचानक हो गया;
थम गया जहां यह सारा,
क्या से क्या यह हो गया।

ठहरी हुई है जिन्दगी,
ठहरा सा अस्तित्व हो रहा;
रुक गया है: वो ही सब कुछ,
जिस पर गुमान था सबको रहा।

खुद को ईश्वर समझकर,
प्रकृति को रौंदता गया;
कहीं मीनारें, कहीं दीवारें
खड़ी, वो करता गया।

नित नई खोज करके,
ढूंढ डालें अस्त्र शस्त्र;
पर कोरोना के आगे,
हो रहे हैं सब व्यर्थ।

पर धरा पर अभी भी,
बहुत कुछ बदला नहीं;
चल रहा है पहले सा,
हारा वो कभी नहीं।

बल्कि वो कठिनता में,
अब और भी प्रबल हुआ;
मलिन हो चुका था जो कभी,
वो, पावन और निर्मल हुआ।

हे धरा, हे माँ सुन लो विनती,
अब सारे कष्ट हरो ना;
दुःख से आकुल हो रहे सब,
जहां से अब नष्ट हो कोरोना।

🌏 Happy 50th Earth Day🌍

2 comments:

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