Wednesday, 5 January 2022

Story of Life: बुद्धि, धैर्य सबसे बलवान

 बुद्धि, धैर्य सबसे बलवान


बात बहुत पुरानी है, जब राजा, महाराजा हुआ करते थे। उनके द्वारा किए गए फैसले सर्वमान्य होते थे। उन्होंने जो कह दिया, वो पत्थर की लकीर। 

वो खुश तो सब सही, वरना कुछ किसी के बस में नहीं।

तो चलिए उस ज़माने में चलते हैं...

एक व्यापारी था, घना होशियार। अपने काम में परांगत, जितना होशियार, उतना ही धैर्यवान।

अपने राज्य में सबसे अधिक अमीर और बहुत ज्यादा सुखी।

उसका एक ही बेटा था, नरेन्द्र। जब वो जवान हुआ तो व्यापारी ने अपने बेटे में अपना सारा ज्ञान उड़ेल दिया। बेटा अपने पिता से भी ज्यादा घना होशियार, शांत और धैर्यवान और आज्ञाकारी था।

दोनों पिता-पुत्र दिन-दूनी, रात-चौगुनी तरक्की कर रहे थे। एक दिन व्यापारी को अंदेशा हुआ कि उसका अंत निकट आ गया है। 

उसने नरेंद्र से कहा, बेटा मैंने तुम्हें जो भी ज्ञान दिया, उसका अनुपालन करना, तो तुम्हें कभी धन की कमी नहीं होगी। 

मैंने बहुत मेहनत से यह धन कमाया है, तुम इसकी वृद्धि करते जाना। और हाँ व्यापार करने श्रंखला नगर कभी ना जाना। साथ ही मेरा एक मंत्र सदैव याद रखना, जब कभी मुसीबत में फंसो, तब सिर्फ अपनी बुद्धि और धैर्य पर विश्वास करना। इससे बड़ा दुनिया में कोई बल नहीं है। 

नरेंद्र ने पिता जी की सारी बातें ध्यान से सुनीं तथा सब बातें उसने गांठ-बांध ली, पर श्रंखला नगर में ऐसा क्या है, जो वहाँ व्यापार को नहीं जाना है।

यह वो समझ नहीं पाया, उसने पिता जी से पूछना भी चाहा, पर पिता जी यह कहकर हमेशा के लिए शांत हो गये।

पिता जी के विधिवत संस्कार के पश्चात नरेंद्र ने कुशलता पूर्वक व्यापार करना शुरू कर दिया।

उसकी मेहनत, कुशलता व पिता जी के द्वारा मिले ज्ञान से वो और अधिक धनवान और प्रसिद्ध व्यापारी बन गया। पर श्रंखला नगर उसे अपनी ओर आकर्षित करता रह रहा था। 

एक दिन उसने अपने पिता जी से क्षमा मांगी और कहा कि आज आपकी आज्ञा के विरुद्ध, श्रंखला नगर जा रहा हूँ। मेरा मार्ग प्रशस्त कीजिएगा।

उसने एक संदूक लिया, उसमें अपनी दुकान से तीन स्वर्ण हार लिए। अपना खानदानी मोतियों का हार पहना और श्रंखला नगर को रवाना हो गया...

आगे पढ़े, बुद्धि, धैर्य सबसे बलवान (भाग-2) में...

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