जीवनसंगिनी
पिया के पिता की सोने-चाँदी की दुकान थी, पर पिया का मन हमेशा कॉपी-किताबों में ही उलझा रहता था। सब बोलते हम सुनारों
के यहाँ ये मुनीम जी हो गयीं हैं, इसकी कॉपी-किताब तो
कभी बंद ही नहीं होती है।
विवाह योग्य हो चली बेटी के लिए जब पिता
सुयोग्य वर तलाशने लगे तो, उनके एक
दोस्त बोले, मेरी मान, तो बिटिया का विवाह बंसल
जी के बेटे से करवा दो।
अरे कौन बंसल जी?
वही अपने इंटर कॉलेज के principal जी,
भला परिवार है, उनका बेटा रतन तो हद
का सीधा है। एक private company में job करता है।
फिर अपनी बिटिया को पढ़ने का बेहद शौक भी है। Teacher का घर है, पढ़ने लिखने का उसे खूब माहौल मिल जाएगा।
फिर अपनी बिटिया को पढ़ने का बेहद शौक भी है। Teacher का घर है, पढ़ने लिखने का उसे खूब माहौल मिल जाएगा।
पिता जी को अपने मित्र की बात पसंद आ गयी। देखना
दिखाना हुआ, दोनों तरफ से तुरंत हाँ हो गयी।
पिया तो अत्यंत प्रसन्न थी, उसे
अपने मन चाह ससुराल मिल रहा था। बड़े ही हर्षो उलास के साथ विवाह सम्पन्न हुआ।
पिया ने जैसा सुना था, पूरा परिवार उतना ही अच्छा था,
पिया भी सबमे ऐसे घुलमिल
गयी कि उनसे अलग नहीं लगती थी, सभी
अत्यंत प्रसन्न थे।
पर कुछ ही दिनों में पिया को एक नयी समस्या का सामना करना पड़ा।
रतन के अत्यधिक सीधे होने के कारण, वो
private job के द्वंद-फंद नहीं कर पता था, जिसके
कारण उसे जल्दी ही
अपनी job से हाथ धोना पड़ा। पिया ने सबसे बात की, और
अपने भी job करने की इक्छा व्यक्त की, सुलझा
हुआ परिवार था, और
रतन की job भी चली गयी थी।
सबने पिया की बात मान ली, अब पिया भी स्कूल
में पढ़ाने लगी थी।
job छूटते ही रतन नें दूसरी job join कर ली, पर
उसमे भी कुछ साल ही
कट पाये।
अब तो रतन के साथ आए दिन यही सिलसिला
शुरू हो गया। वो job join करता, कुछ
साल टिकता, फिर
उसे job छोडनी पड़ती,
या उसे निकाल दिया
जाता। इधर पिया की लगन उसे आगे बढ़ाती जा रही थी,वो inter college की teacher
से degree college की teacher बन गयी।
कभी भी पिया ने अपनी सफलताओं का अभिमान नहीं किया और
ना ही रतन की असफलतों के लिए
उसे नीचा दिखाया।
पर पूरा परिवार......
क्या पिया की बढ़ती हुई सफलता, और रतन की असफलता ने परिवार की सोच बदल दी..... पढ़ते हैं जीवनसंगिनी भाग-२ में