तृप्ति (भाग-1) के आगे...
तृप्ति (अंतिम भाग)
रंजन सोचते हुए और अपने पिता की बातों को समझते हुए “हम्म...”
रघु बोला “अगर मेरी इन छोटी-छोटी इच्छाओं को मेरे जीवित रहते ही पूरी कर दो, तो कितना अच्छा होगा।
मेरी आत्मा को तृप्ति मिल जाएगी। फिर पितृपक्ष में तुम अपनी सामर्थ के अनुसार जैसा भी करना
चाहो, भोज
कराना चाहो, पंडितों को दान करना चाहो, गरीबों को दान करना चाहो या पशु-पक्षियों को ही
कुछ डाल दो, मेरे लिए सब एक-समान हैं। मेरी तृप्त आत्मा तुम्हें सदैव आशीर्वाद
देगी।”
रंजन बोला “अच्छा...”
रघु ने कहा “मेरे मन में
एक और विचार आया है।”
रंजन ने कहा “वो क्या
पिताजी?”
रघु ने कहा “मैं तुम्हारी सहूलियत के लिए यह भी कर सकता हूँ कि तुम पितृपक्ष के उन पंद्रह दिन ही मेरी छोटी-छोटी इच्छाओं को पूरी कर दो। सच कहता हूँ मेरी आत्मा उतने से भी तृप्त हो जाएगी। फिर मुझे मुक्ति के लिए पितृपक्ष का इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा।”
रंजन बोला “ठीक है पिताजी। मैं आपकी छोटी-छोटी इच्छाओं का ध्यान रखूँगा और पितृपक्ष में तो विशेष ध्यान रखूँगा।
आप सही कहते हैं, यदि माता-पिता की सेवा उनके जीवित रहते ही कर दी जाए, तो उससे बड़ी कोई सेवा
नहीं और उससे बड़ी कोई तृप्ति नहीं, व इससे ही सबसे बड़ा आशीर्वाद भी मिल सकता है।”
अगले दिन से ही रंजन ने
रघु की छोटी-से-छोटी इच्छाओं को पूरा करना प्रारम्भ कर दिया। इससे रघु बहुत खुश
रहने लगा और रंजन को भी आंतरिक सुख मिलने लगा जिससे उसे अपने कार्यों में और
ज़्यादा सफलता प्राप्त होने लगी।
किसी ने सच ही कहा है, माँ-बाप की सेवा से बढ़कर कोई सेवा नहीं और उनके आशीर्वाद से बढ़कर कोई आशीर्वाद नहीं।
आप सभी को पितृपक्ष पर
ईश्वर और पितरों से आशीर्वाद मिले और आप सभी सुखी और स्वस्थ रहें।