अब तक आपने पढ़ा, दिव्या ने अपने ससुराल मेँ क्या व्यवहार
किया, अब आगे
बहू–बेटी (भाग-2)
स्नेहा ने आते ही ससुराल का सारा
कार्यभार संभाल लिया, सारे काम खत्म करके वो ऑफिस निकाल जाती, और घर आते ही सारे काम निपटा डालती, व्यवहार भी उसका इतना अच्छा था कि, अब रंजना के घर दोस्तों रिश्तेदारों का
तांता ही लगा रहता था, पर हाँ रविवार के दिन स्नेहा को जल्दी
उठना बिलकुल पसंद नहीं था, ना उस दिन उसे काम करना पसंद था, क्योंकि, उस दिन वो अपने पति और परिवार के साथ पूरा समय बिताना पसंद
करती थी- दिन में कहीं घूमने जाना और रात में साथ dine-out.
पर रंजना को ये सब पसंद नहीं था, उसे बर्दाश्त नहीं था कि स्नेहा, एक दिन भी मस्ती करे, काम ना करे।
वो, उसके हर काम में मीनमेक ही निकालती रहती, सब से कहती फिरती, ना जाने कैसी कुलछनी बहू मिली है, इसे तो बस आराम चाहिए, सुबह 9 बजे से पहले तो ये मैडम उठेंगी
नहीं, फिर घूमने निकल जाएंगी, दुनिया का पैसा बर्बाद करेंगी, सो अलग, इनसे तो बस ऐश करवा लो, और तो और मेहमानों की भी लाइन लगवा दी है।
एक दिन स्नेहा का ऑफिस से आते समय accident
हो
गया, पैर में काफी चोट आई थी, रंजना ने उसे तुरंत उसके मायके भेज
दिया। रंजना, स्नेहा की एकदम भी
सेवा नहीं करना चाहती थी।
स्नेहा, हफ्ता भर के लिए पहली बार आई थी, वरना वो रजत के साथ जब आती थी, तो एक दिन में ही लौट जाती थी, रंजना एक दिन से ज्यादा स्नेहा को
रुकने ही नहीं देती थी, पहले ही कह के भेजती
थी, मिलने जा रही हो, रहने के लिए रुक ना जाना।
हफ्ते भर मे उसका घाव भी भर आया था, आज दिव्या का स्नेहा के पास फोन आया था,
कैसा पैर है स्नेहा?
दीदी, अभी तो आराम है।
तो वहाँ क्या कर रही हो, माँ और भाई को कितना परेशान करोगी, अब वापस भी आ जाओ।
ये सुन कर स्नेहा की माँ सन्न रह गयी, क्या बिना दुख दर्द के बेटी माँ के पास
नहीं रुक सकती?
स्नेहा वापिस चली आई।
दिव्या भी आई हुई थी, एक भी काम को तो वो वैसे भी हाथ नही
लगाती थी, पर स्नेहा को देख कर तो उसके हाथ पैर
बिलकुल भी नहीं चलते थे।
हर काम के लिए स्नेहा को आवाज़ लगा देती, पैर की चोट के कारण स्नेहा, उतनी फुर्ती से काम नहीं कर पा रही थी, तो दिव्या उससे ये कहने से नहीं चूकी, स्नेहा तुम्हारे पैर का नाटक कितने दिनों तक चलेगा, रंजना ने भी ये कह कर कि, स्नेहा तो है ही कामचोर दिव्या का ही
साथ दिया।
आज रजत की सहनशक्ति ने जवाब दे दिया था, उसने माँ और बहन दोनों को आड़े हाथ लिया।
जब उसके पैर
मे चोट लगी है तो, क्या दीदी एक ग्लास
पानी भी अपने आप नहीं ले सकतीं हैं?
माँ अच्छा है, स्नेहा की माँ आप नही हैं, अगर होती, तो जो हाल दीदी के ससुराल का है, वही यहाँ का भी होता।
मैं तो धन्य हो गया, जो मुझे स्नेहा मिली है, घर का सारा काम इसने संभाल लिया है, इसके आने से किसी को कोई काम नहीं करना पड़ता है। जिन लोगो ने
बरसों से हमारे घर आना छोड़ दिया था, वो आज हम से फिर जुड़ गए हैं।
क्या हुआ अगर वो एक दिन रविवार को आराम
करना चाहती है, इंसान है, मशीन नहीं, उसकी ऐसी सोच ने ही हम सबको साथ समय
गुजरने का मौका दिया है, उसी कारण से हम लोग
एक दूसरे को अब ज्यादा समझने लगे हैं।
माँ, बहू भी बेटी बन सकती है, जब उन्हें इस संस्कार के साथ भेजा जाए, कि जिस घर जा रही हो ,वो तुम्हारा अपना घर है, तुम्हें ईश्वर ने वो वरदान दिया है कि, तुम्हारे दो माता-पिता, भाई बहन हैं, ये घर परिवार छूटा नहीं है, बल्कि एक और घर परिवार मिल गया है।
और ससुराल वालों को भी ये ही सोचना
चाहिए, कि उन्हें एक और बेटी मिल गयी है, जिसको उन्हें उतने ही जतन से रखना है, जैसे अपनी बेटी को रखते हैं।
साथ ही बहू बेटी दोनों का सही गलत
एक ही तराजू में रखना होगा, दोनों में से जो कुछ गलत करे तो उसे
ठीक करें और दोनों में से जो भी कुछ सही
करे, तो उसकी तारीफ करें।
जब बहू बेटी
दोनों को एक
सा मान और प्यार मिलेगा, और बेटियाँ भी बहू बन कर
दोनों घर को एक सा मान और प्यार देंगी।
तब न बहू होगी न बेटी होगी, न मायका होगा ना ससुराल।
होंगे तो बस दो खुशहाल परिवार।
बहू–बेटी (भाग-2)