आज छठ पर्व का तीसरा दिन, कार्तिक शुक्ल षष्ठी है। यह छठ पर्व का सबसे महत्वपूर्ण दिन होता है, इस दिन महिलाएं निर्जला व्रत रखती है, और शाम को अपने सामर्थ्य के अनुसार सात, ग्यारह, इक्कीस अथवा इक्यावन प्रकार के फल-सब्जियों और अन्य पकवानों को बांस की डलिया में लेकर व्रती महिला के पति, देवर या फिर पुत्र नदी या तालाब के किनारे जाते है।
नदी और तालाब की तरफ जाते समय महिलाएं समूह में छठी माता के गीतों का गान करती है। नदी के किनारे पहुंचकर पंडित जी से महिलाएं पूजा करवाती है और कच्चे दूध का अर्ध्य डूबते हुए सूरज को अर्पण करती है।
लोक आस्था के महापर्व छठ के आगमन के साथ ही सभी जगह, छठ से जुड़े लोकगीत, लोग गुनगुनाने लगे हैं।
बहंगी लचकत जाय
इन गीतों की विशेषता यह होती है कि इसे भोजपुरी, मैथिली या मगही भाषा में गाया जाता है।
यह बहुत कर्णप्रिय होते हैं, और अपने तीज़-त्यौहार और संस्कृति से जुड़े हुए होते हैं।
आधुनिकता के इस दौर के बावजूद भी लोक आस्था के महापर्व छठ को लेकर ना ही परंपराओं में कोई बदलाव हुआ, ना ही लोगों की आस्था कम हुई है। यही वजह है की सैकड़ों वर्षों से आस्था और विश्वास से लोग, लोक आस्था का महापर्व छठ मानते आए हैं।
आज, हम बात कर रहे हैं खास तौर पर छठ में बांस के बने सूप की, जिसका इस पर्व में अपना अलग ही महत्व है।
छठ पूजा के दौरान आपने हमेशा ये प्रसिद्ध लोकगीत, कांच ही बांस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाए, सुना ही होगा।
यह बेहद सुरीला व मधुर गीत है, और इसे अनुराधा पौडवाल जी की आवाज में सुन लें, तो यह मन में एक अलग ही ऊर्जा और उत्साह भर देता है।
पर अगर इस गीत का अर्थ पता चल जाए, तो यह गीत आपको, अपनी तरफ और अधिक आकर्षित करेगा।
चलिए जानते हैं, इस गीत का वृतांत और अर्थ।
जब भी छठ का त्यौहार आता है, तब एक बांस का बना सूप (बहंगी), जिसे पीले वस्त्र में लपेटकर, उसमें पूजा से जुड़ा सारा सामान-फूल रखकर, घर के पुरुष उसे सर पर उठाकर नजदीक के घाट पर चलते हुए जाते हैं श, तो सूप हिलता-डुलता है, जिसे हमारी भोजपुरी भाषा में (लचकत जाए) शब्द का प्रयोग करते है। इस पूरे वृतांत पर ही आधारित है यह प्रसिद्ध गीत...
इस गीत की लाइनें इस प्रकार हैं - कांच ही बांस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाय, बहंगी लचकत जाय, होई ना बलम जी कहरिया, बहंगी घाटे पहुंचाय।
इसका अर्थ हुआ कि - कच्चे बांस से बनी बहंगी (दौरी या सूप) को जब घाट पर ले जाया जा रहा है, तो वो लचक (हिल-डुल) रही है। ये बहंगी इस वजह से लचक रही है क्योंकि उसमें व्रत से जुड़ी तमाम सामग्रियां भरी हुई हैं। व्रती महिला अपने पति से कह रही है कि वो अब इस बहंगी को घाट तक पहुंचाए। व्रती महिला इस चीज को देखकर बहुत खुश है कि, बहंगी लचक रही है। कहरिया शब्द का इस्तेमाल इसलिए हुआ है क्योंकि गुजरे जमाने में व्रत, या किसी शुभ कार्य से जुड़ी सामग्री को ले जाने का काम कहार जाति के लोगों को दिया जाता था। जब मायके से लड़की के ससुराल किसी सामान को पहुंचाना होता था, तो भी कहार ही उसे ले जाया करते थे। बस इसी वजह से इस गीत में भी व्रती महिला अपने पति से, अपने देवर से कह रही है कि साजन जी, देवर जी, आप काहर के समान ही सामानों से सुसज्जित सूप को घाट (नदी के किनारे) पर पहुंचा दें।
जब राहगीर, सूप देखकर पूछता है कि यह कहां जा रहा है, तो उसे कहती है कि, तुम तो अंधे हो? (यहां तात्पर्य अक्ल के अंधे से है, जो नहीं देख पा रहा है, कि सूप किसलिए जा रहा है) यह सूप छठ मैया के पास जा रहा है, वो इसमें अपनी कृपा बरसाएंगी। पीले वस्त्र में लिपटा, सामानों से सुसज्जित सूप उनके लिए ही जा रहा है।
ये गीत बेहद लोकप्रिय है।
कांच ही बांस के बहंगिया, यह पूरा गीत इस प्रकार है -
कांच ही बांस के बहंगिया,
बहंगी लचकत जाय।
बहंगी लचकत जाय।।
होई ना बलम जी कहरिया,
बहंगी घाटे पहुंचाय।
बहंगी घाटे पहुंचाय।।
कांच ही बांस के बहंगिया,
बहंगी लचकत जाय।
बहंगी लचकत जाय।।
बाट जे पूछेला बटोहिया,
बहंगी केकरा के जाय।
बहंगी केकरा के जाय।।
तू तो आन्हर होवे रे बटोहिया,
बहंगी छठ मैया के जाय।
बहंगी छठ मैया के जाय।।
ओहरे जे बारी छठि मैया,
बहंगी उनका के जाय।
बहंगी उनका के जाय।।
कांच ही बांस के बहंगिया,
बहंगी लचकत जाय।
बहंगी लचकत जाय।।
होई ना देवर जी कहरिया,
बहंगी घाटे पहुंचाय।
बहंगी घाटे पहुंचाय।।
ऊंहवे जे बारि छठि मैया,
बहंगी उनका के जाय।
बहंगी उनका के जाय।।
कांच ही बांस के बहंगिया,
बहंगी लचकत जाय।
बहंगी लचकत जाय।।
आज इस गीत को आप भी सुनें, गुनगुनाएं, और छठी मैया की असीम कृपा पाएं 🙏🏻
🪔🙏🏻 छठ मैय्या की जय 🙏🏻🚩