Thursday, 9 January 2025

Poem : हर ओर धुंध

हर ओर धुंध


हर ओर धुंध, और

कोहरा-सा है।


शरद की

कंपकंपाती शीत में,

एक अनभिज्ञ

पहरा-सा है।


हाथ को हाथ

नहीं सुहाता है,

प्रभात हो चुका है,

फिर भी अंधेरा-सा है।


रवि अपनी रश्मि संग,

है अभ्र में आया,

पर तिमिर ढलेगा कब,

रहस्य यह गहरा-सा है।


न पक्षी का कलरव,

न वृक्षों में हलचल,

न नदियों में कल-कल, 

प्रकृति में मौन ठहरा-सा है।


हर ओर धुंध, और

कोहरा-सा है।