मृत्यु अनबुझ पहेली
हरिराम के पिता जी ब्रह्मलीन हो गए, वो ईश्वर के बहुत बड़ा भक्त थे।
हरिराम पिता जी का बहुत आज्ञाकारी पुत्र था, और वो उनसे बहुत प्रेम करता था। अपने पिता जी की तरह, वह भी ईश्वर भक्त था।
पिता जी के आकस्मिक चले जाने से हरिराम बहुत विचलित हो उठा।
वो ईश्वर की कठीन तपस्या में लीन हो गया। उसकी दिन-रात कठिन तप से उससे ईश्वर प्रसन्न हो गए।
ईश्वर ने हरिराम से पूछा, तुमने किस कारण से मेरा तप किया, वो कहो।
मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करने आया हूं।
हरिराम बोला, मुझे कुछ भी भौतिक पाने की कामना नहीं है।
तब किस की कामना है?
मेरी कामना तो मृत्यु की अनबुझ पहेली को समझने की है?
यह जीवन क्या है,?
क्यों है?
इन प्रश्नों के बहुत से उत्तर हैं...
पर मृत्यु क्या है?
इस प्रश्न का उत्तर जानने की कामना लिए मैं आपके द्वार पर आया हूं।
शरीर का पंचतत्व में विलीन हो जाना, क्या यह मृत्यु है?
नहीं, बिल्कुल भी नहीं, पुत्र...
चलो, जिस कामना से तुमने तप किया है वही बताता हूं।
क्योंकि अगर यही मृत्यु होती, तो मानव जन्म, अन्य जीवों के जन्म से श्रेष्ठ कैसे है?
शरीर का आत्मा से विलग हो जाना, मोक्ष का या एक और जन्म का पर्याय हो सकता है
पर कदापि मृत्यु नहीं...
मृत्यु, तो उसकी होती है, जिसने जीवन भर कोई भी ऐसा कार्य ना किया हो, जिससे वो रहे या ना रहे, कोई उसे याद ना करता हो, उसकी बात ना करना चाहता हो।
क्योंकि ऐसा प्राणी तो जीवित होने के बाद भी मृत प्राय है।
जिसने अपना पूरा जीवन, निज स्वार्थ में व्यतीत ना कर के, परिवार, समाज और देश को समर्पित कर दिया हो, उसकी कभी मृत्यु नहीं होती है।
क्योंकि वो हरदम, हर पल, लोगों की बातों में, यादों में, सपनों में, किस्सों में, कहानियों में, प्ररेणा में, उम्मीदों में बना रहता है, अमर रहता है।
जीवन तो क्षणिक है और मृत्यु एक सत्य है, अवश्यसंभावी है। जिसे आना ही है।
तब प्रभु, किस जीवन को सफल जीवन कह सकते हैं?
वह जीवन, जो निज स्वार्थ में ना लिप्त हो...
फिर वो परिवार के लिए, समाज के लिए या देश के लिए हो, पर मानव जीवन को अपने विचार और संस्कार से, सार्थक करते रहना चाहिए।
तुम्हें पता है, मेरी प्राप्ति के लिए भी, कठिन तप की आवश्यकता नहीं है।
तब किस की आवश्यकता है प्रभु?
सिर्फ और सिर्फ अपने जीवन को सार्थक करने की, उसके लिए नित ऐसे सत्कर्म करने की, जिससे, सब की भलाई होती चले। और साथ ही हर किसी को तुम्हारी कामना रहे।
अगर तुम्हें सब याद करें, चाहे तुम रहो या ना रहो, बस वही जीवन है, बाकी जो है बस वही मृत्यु है और यही तुम्हारी अनबुझ पहेली का उत्तर है।
यह कहकर प्रभु अंतर्ध्यान हो गए।
क्षण भर बाद बहुत सारे लोग, उसके दुःख में शामिल हो गए। वे सभी उसके पिता जी के सद्कर्मों का उल्लेख कर रहे थे। वो उनके द्वारा किए गए, सद्कर्मों के लिए कृतार्थ हो रहे थे। साथ ही उनकी सद्गति की कामना कर रहे थे और ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे कि उनके जैसे सद् पुरुष वह भी बने।
हरिराम को अब अच्छे से समझ आ गया था कि जीवन और मृत्यु क्या है।
उसके पिता जी ने सिर्फ शरीर त्याग दिया है, पर उनकी मृत्यु नहीं हुई है, क्योंकि वो विचार और संस्कार बनकर उसमें जीवित हैं।
और ना केवल उसमें बल्कि उन सब में, जिस जिस का, जीवन उन्होंने संवारा था।