नाना जी का चश्मा
हाँ तो कहानी कुछ यूँ है, कि हमारा बचपन आजकल जैसा तो था नहीं, कि बस पूरी ज़िंदगी
अकेले में gadgets के साथ गुज़ार दी।
गर्मी की लंबी छुट्टियाँ हुआ करती थी, जिसमें कभी दादी, कभी नानी के घर जाया करते थे। तो बस, हम खूब सारे बच्चे, दिन-दिन भर मस्ती में गुजार दिया
करते थे।
जब हम नानी के घर जाते थे, तो हम बच्चों की धमा-चौकड़ी
नाना जी के इर्द-गिर्द हुआ करती थी, क्योंकि वो बहुत मस्त थे, तो हमारी मस्ती से गुस्सा
नहीं होते थे। बाकी बड़ों से ज्यादा उधम करने पर डांट पड़ जाती थी।
पर नाना जी की एक आदत थी, कि वो अपना चश्मा यहाँ- वहाँ रखकर भूल जाया करते थे, तो बस आए दिन चट्ट...... की आवाज़ होती, और हम सब में
किसी एक की कान खिंचाई.......
इस कारण से बच्चे बहुत परेशान रहते, साथ ही जब तक टूटा चश्मा बन नहीं जाता, नाना जी को भी
परेशानी झेलनी पड़ती।
पर नाना जी जितने मस्त-मौला थे, उससे बहुत ज्यादा बुद्धिमान भी।
तो उन्होंने ऐसी युक्ति निकली, कि अब ना तो उनका चश्मा टूटता था, बल्कि उन्हें बहुत
जल्दी मिल भी जाता था।
अब आप सोच रहे होंगे, ऐसी भी क्या
युक्ति निकली?
कुछ नहीं, बस उन्होंने ऐलान
कर दिया, अब से उनका चश्मा जिससे टूटेगा, वो ही चश्मा बनवाएगा। और अगर किसी बच्चे से टूटेगा तो....., उसकी कान खिंचाई नहीं की जाएगी, बल्कि उसके मम्मी-पापा
बनवाएंगे। और बाद में जब भी बच्चे के पास पैसा इक्कठा होगा, उससे
ले लिया जाएगा।
दरअसल जब भी कोई मेहमान घर से जाता था, तो हम बच्चों को दस-पाँच रुपए देकर जाता था, वही हमारी
कमाई होती थी। पर यकीन जानिए बहुत कमाई हो जाती थी, क्योंकि मेहमानों
का तांता लगा ही रहता था।
हाँ जी, तो उस ऐलान से हुआ
यूँ, कि हम बच्चे तो बच्चे, बड़े भी उनका
चश्मा संभाल कर रखने लगे। जिससे अब नाना जी का चश्मा उनको हमेशा मिल जाता था, टूटता नहीं था, और न ही होती थी हम बच्चों की कान खिंचाई.......
तो अब चश्मे के टूटने की चिंता से सब मुक्त थे, या यूँ कहें, अब नाना जी को छोड़, बाकी सबको नाना जी के चश्मे की चिंता
रहती थी।
तो जय हो नाना जी की ..........