एक सच्चाई (भाग-2)
बहुत पहले, जब तुम इस दुनिया में भी नहीं आए थे…
मेरी नई-नई posting हुई थी। नया ही जोश था, पुलिस महकमे में आने का।
मेरी शुरू से इच्छा थी कि पहली posting किसी गांव में हो, क्योंकि गांव में सुधार करने के लिए बहुत कुछ होता है।
पर जब इस गांव में आए तो पता चला, यहां पर ठकराल जी का सिक्का चलता है।
हर कोई उनका ही नाम ले रहा था। कानून की व्यवस्था का तो जैसे यहां पर दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं था।
ठकराल जी का वचन ही यहां का कानून था। उनकी इच्छा के बिना पत्ता नहीं हिलता था।
पर बाबा, ठकराल जी तो…
हां, हां, आगे सुन…
सबके मुंह की कही-सुनी बातों के बाद इच्छा हुई, उनसे भी जाकर मिलें, जिनका सब इतना नाम ले रहे हैं।
साथ ही मन में यह भी ठान कर गया कि चलता होगा इनका शासन, पर अब नहीं।
अब तो वही होगा, जो कानूनी रूप से सही है, आज तक मेरा जैसा दिलेर, जांबाज और इमानदार अफसर मिला नहीं होगा।
आज तो इन्हें सरकारी गर्मी दिखानी ही पड़ेगी।
बस इसी सोच के साथ मैं उनकी कोठी पर पहुंच गया।
वहां पहुंचा तो देखा सारा नज़ारा किसी film से कम नहीं था।
बहुत ही विशाल और खूबसूरत कोठी, कोठी के द्वार पर ही बड़े-बड़े पिंजरे और उनमें बेहद खूंखार कुत्ते… कुत्ते क्या, किसी भेड़िए से कम नहीं थे और उनकी गुर्राहट, आह! शेर से कम नहीं पड़ रही थी।
यूँ तो मैं बहुत बहादुर हूँ, फिर भी जानवरों का क्या भरोसा, मैंने हाथ में डंडा लिया और बहुत ही एहतियात के साथ घर में प्रवेश किया।
गजब की शान थी, अंदर भी…
दीवारों पर शिकार किए गए शेर और अन्य जानवरों की खाल लगी हुई थी।
मुझे बिठाकर, नौकर ठकराल जी को बुलाने चला गया…
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