पान का डिब्बा
मम्मी पापा के साथ, एक uncle के घर जाया करते थे, वहाँ उनकी बहनें और उनके मम्मी पापा भी रहते थे।
वो जमाना ही और था, उस जमाने में कोई uncle-aunty नहीं होते थे।
सभी को हम मौसी, मामा, बुआ, चाचा, चाची कहा करते थे और उनके माता-पिता को बाबा दादी या नाना-नानी कहा करते थे।
ऐसा नहीं था कि हम केवल उन्हें सम्बोधित
किया करते थे।
नहीं... बल्कि हम सब में रिश्ता भी प्रेम और अपनत्व का था। हमें उनसे मिलकर अत्यंत आनंद की अनुभूति होती थी।
तो बात उन्हीं दिनों की है।
जब भी हम वहाँ जाते थे, तो हम लोगों का स्वागत बहुत ही आत्मीयता से होता, अक्सर दोपहर के भोजन से लेकर, शाम की चाय तक का समय वहीं व्यतीत हुआ करता था।
जब हम वहाँ पहुंचते तो, मम्मी पापा तो उनके साथ होते बातें करते और हम बच्चे तो क्या कहें, अपनी टोली के साथ मशगूल हो जाते, खेलने कूदने में; फिर समय का पता ही नहीं चलता।
दोपहर के भोजन के बाद आता, दादी का बड़ा ही दिलकश पान का डिब्बा।
सुनहरा रुपहला सा वो डिब्बा, अपनी अलग ही शान रखता था।
उस डिब्बे के ऊपरी हिस्से में एक प्लेट में छोटी छोटी कटोरी लगी होती, जिसमें रखा होता चूना, कत्था, सुपाड़ी, लौंग, इलायची, और ऐसी ही ना जाने,कितनी सुगंध बिखेरती बहुत सी चीजें...
और उस प्लेट को हटाएं तो उसके नीचे होता, एक सरोता! अरे, सरोता क्या होता है, जानते तो हैं ना? हाँ बिल्कुल वही, सुपाड़ी कटाने का औजार। और यह सुपाड़ी जो इतनी सख्त और मजबूत होती है कि अच्छे- अच्छों की ताकत को फेल कर दें, पर मियां सरोते के आगे टुकड़े-टुकड़े हो जाती है। इसी सरोते के साथ होतें हैं, पान के डिब्बे की शान, खूब सारे ताज़े, नरम मुलायम पान के पत्ते।
पर यह पान की हसीन दुनिया, दादी के प्यार व दुलार और पान के दीवानों के बिना अधूरी थी
दादी, सबसे पूछा करतीं, कौन किस तरह का पान खाएगा, फिर सबकी पसंद के अनुसार बहुत ही रुच-रुचकर पान लगाया करतीं।
यूं तो हम बच्चों को मीठा पान भाता था और वो मीठा पान नहीं लगातीं थीं, मतलब पान सिर्फ बड़े लोगों के खाने के लिए ही तैयार होता था।
पर उनका इतने प्रेम से और कलात्मक ढंग से सबके लिए पान तैयार करना, साथ ही उस डिब्बे से आती एक अलग ही मनमोहक सुगंध, हम सब बच्चों को वहीं बांधे रखती थी।
वो पान का डिब्बा, क्या था, बस समझिए प्रेम की भावना से भरा जीता जागता, कोतूहल था।
पर अब, जब वो दादी हमारे बीच नहीं हैं, तो मानो वो पान का डिब्बा एक कोने में रखा, इंतजार करता रहता हो, उस असीम स्नेह का।
जो आज के जमाने में तो संभव ही नहीं है, क्योंकि अब ना वो पहले सा प्रेम है, ना आत्मीयता, ना लोगों के पास पहले सा वो वक्त।
आज सब ना जाने कहाँ व्यस्त हो गए हैं, बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक सभी व्यस्त हैं, पर कहाँ? किसी को नहीं पता।