विद्या
रघु जी बहुत अच्छे ज्योतिषी थे, वो जब भी किसी को कुछ बताते, सब सही निकलता।
इससे, सब जगह उनका बहुत नाम था, अपने ज्योतिष विद्या से उन्होंने बहुत धन कमाया और सब जगह उनका बहुत प्रभाव भी था।
उनके दो पुत्र थे। रघु जी जब बूढ़े हो गये, तो उन्होंने सोचा कि अपने बेटों को यह विद्या सिखा दें।
उन्होंने बहुत कोशिश की, कि उनके बेटे उनकी विद्या सीख लें।
लेकिन इतने धन-धान्य में पले, उनके दोनों बेटे अपने में ही मस्त रहते थे। वो कभी विद्या अर्जित करने में मन ही नहीं लगाते थे।
नतीजतन रघु जी की विद्या, रघु जी तक ही सीमित रह गई। उन्हें चिंता सताने लगी कि उनके बाद उनकी विद्या का क्या होगा?
रघु जी ने सब धन अपने दोनों बेटों में बांटा और एक रात चुपचाप घर छोड़ दिया।
एक दिन घूमते-घूमते रघु जी एक झोंपड़ी के आगे पहुंचे ही थे कि भूख-प्यास से बेहाल वो वहाँ गिर कर बेहोश हो गये।
झोपड़ी में 12 साल का गरीब लड़का वरुण रहता था। उसके माता-पिता कुछ दिन पहले चल बसे थे। वो मेहनत-मजदूरी कर के अपना जीवन चला रहा था।
वरुण, रघु जी को झोंपड़ी में भीतर ले आया और रघु जी पर पानी के छींटें मारकर, उन्हें ठीक करने में जुट गया।
रघु जी के ठीक होने पर उसने रघु जी को गुड़-चना खाने को दिया।
गुड़-चना खाने से रघु जी की जान में जान आई। तब उन्होंने वरुण से पूछा कि तुम कौन हो और वो यहाँ कैसे आये?
वरुण ने सब बता दिया। वरुण की आपबीती सुन रघु जी को बहुत दुःख हुआ।
वरुण बोला, मेरे माता-पिता के जाने से मैं बहुत अकेला हो गया था, क्या आप सदैव मेरे साथ रहेंगे?
रघु जी, कुछ देर सोचने के बाद बोले, एक शर्त पर, अगर मैं तुम्हें जो बताऊं, वो सब सीखो तो..
वरुण बोला, आप जो सिखाएंगे, मैं मन लगाकर सीखूंगा।
रघु जी बहुत खुश हो गये कि उन्हें अपनी विद्या बांटने के लिए कोई मिल गया था।
अब तो घर के सारे काम जल्दी-जल्दी खत्म कर के वरुण विद्या सीखने में जुट जाता।
वरुण बहुत होशियार, मेहनती और लगन का पक्का था। वो बहुत जल्दी ही सब सीखने लगा।
रघु जी ने कहा, अब तुम लोगों को भविष्य बताना शुरू कर दो।
वरुण ने वैसा ही करना शुरू कर दिया, अब वरुण का सब जगह नाम होने लगा।
एक दिन, वरुण लौट कर आया, तो रघु जी बिस्तर पर लेटे थे, उन्होंने कहा, वरुण अब मैं जाऊंगा।
सुनकर वरुण, रघु जी के पैरों में गिर गया, बोला, आप मुझे फिर अनाथ ना करें...
रघु जी बोले, मेरा समय खत्म हो गया है, मैं एक अच्छे शिष्य की तलाश में था, जो तुम को विद्या देकर पूरी हो गई।
पर मुझे जाने से पहले तुम से आज एक और वादा चाहिए..
वरुण बोला, मैं धन्य हो गया कि मुझे आप जैसा गुरु मिला।
जो कहें, सब आप का है, मेरा जीवन भी।
रघु जी बोले, बस इतना कि तुम मेरी विद्या को कभी खत्म मत होने देना। जब तुम्हारा समय पूरा हो जाए तो, इस विद्या को किसी अच्छे योग्य शिष्य को ढूंढ कर उसे दे देना।
यही मेरी गुरु दक्षिणा होगी कि मेरी विद्या जीवित रहे।
वरुण ने पैरों को ही थामे हुए कहा, मैं आपकी विद्या सदैव जीवित रखूंगा। और एक योग्य शिष्य को ढूंढ कर इसे देकर आप में ही मिल जाऊंगा।
रघु जी बोले, जैसे एक शिष्य को अच्छा गुरु चाहिए होता है वैसे ही हर अच्छे गुरु को योग्य शिष्य की आवश्यकता होती है, जिससे उसकी विद्या जीवित रहे। क्योंकि हर किसी से बड़ी विद्या होती है।
यह कहकर रघु जी ने, तृप्त सांस छोड़ते हुए संसार से विदा ले ली...