हमारा भारत, हमारा सनातन, हमारा हिन्दुत्व, भरा पड़ा है कौतूहल से, अविश्वसनीय सत्य से... ऐसी कई कहानियों से, जिनमें से कुछ हमने सुनी हैं, तो कुछ कभी सुनी ही नहीं होगी।
आज अपने विरासत के इस अंक में आपको एक ऐसी ही कहानी सुनाने जा रहे हैं, जो जितनी अविश्वसनीय है, उतनी ही रोचक भी, कुछ ने सुनी होगी पर कुछ लोगों ने नहीं भी सुनी होगी...
महर्षि दधीचि- अस्थियों के दानी
कहानी है महर्षि दधीचि की, महर्षि दधीचि बहुत ही उच्च कोटि के ऋषि थे। जो सदैव जप-तप व साधना में लीन रहते थे।
एक बार देव व असुर में भयंकर युद्ध छिड़ गया। वृत्रासुर ने स्वर्ग पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। किसी भी तरह से युद्ध जीतने के कोई आसार नहीं दिख रहे थे।
सभी देवता अपनी व्यथा लेकर ब्रह्मा, विष्णु व महेश के पास गए, लेकिन कोई भी उनकी समस्या का निदान न कर सका।
बाद में ब्रह्मा जी ने देवताओं को एक उपाय बताया कि पृथ्वी लोक में 'दधीचि' नाम के एक महर्षि रहते हैं। यदि वे अपनी अस्थियों का दान कर दें और उन अस्थियों से एक वज्र बनाया जाए तो उसकी सहायता से युद्ध जीता जा सकता है।
कैसी विचित्र बात है कि, हम मनुष्य अपनी हर मुश्किलों के हल के लिए देवताओं के शरण में जाते हैं और उन्हीं देवताओं को अपनी मुश्किलों के हल के लिए एक मनुष्य की शरण में आना था।
पर सोचने वाली बात यह है कि अगर ऐसा था तो वो मनुष्य, साधारण मनुष्य तो हो ही नहीं सकता, वो कोई विशेष विभूति ही होंगे....
कभी-कभी भगवान को भी,
भक्तों से काम पड़े।
जीतना था युद्ध तो,
देवता दधीचि के द्वार खड़े।
तो ऐसे विशेष विभूति, महर्षि दधीचि के पास देवता पहुंचे और उन्होंने बहुत सकुचाते हुए, महर्षि को अपनी व्यथा बताई और कहा कि युद्ध जीतने के लिए उन्हें उनकी अस्थियों का दान चाहिए...
आप समझ रहे हैं, उनसे एक ऐसे दान की कामना की गई थी, जिसे देने के लिए महर्षि दधीचि जी को अपने शरीर का त्याग करना पड़ता...
और यह दान मांगने वो इंद्र देव आए थे, जो यह सोचते थे कि महर्षि दधीचि, इसलिए जप-तप करते हैं, क्योंकि उन्हें स्वर्ग की कामना है।
यहां तक कि उनके वध के लिए एक बार इंद्र देव ने अपनी सेना भी भेजी थी, वो अलग बात है कि इंद्र देव की सेना महर्षि दधीचि के तप व परोपकार की दीवार तक भी नहीं भेद पाई थी, तो उनके निकट क्या ही पहुंच पाती, और वध वो तो बहुत दूर की बात है...
महर्षि दधीचि, वेद शास्त्रों आदि के पूर्ण ज्ञाता थे। वो जितने बड़े तपस्वी थे, उतने ही दयावान और सरल व्यक्ति भी थे।
वो इतने महान थे कि, उन्होंने इंद्र देव की करनी पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया। वो देवताओं का दुःख दूर करने के लिए शरीर भी त्यागने को तत्पर हो गये..
जहां सभी, धन-दौलत तक दान करने से पहले भी कई बार सोचते हैं। अपने घर परिवार के लिए पहले सोचते हैं, बाद में अन्य किसी के बारे में, वहीं महर्षि दधीचि जी ने किसी के बारे में कुछ नहीं सोचा। यहां तक कि उनकी पत्नी गर्भवती थीं, पर महर्षि दधीचि ने अपनी पत्नी की भी चिंता नहीं की व तप में लीन होकर शरीर त्याग दिया और अपनी अस्थियां देवताओं को दान कर दी।
कुछ किंवदंतियों के अनुसार, यह एक कठिन प्रश्न था कि, महर्षि दधीचि जी के शरीर से देह हटाकर अस्थियां निकालने का कार्य कौन करेगा।
क्योंकि जितना कठिन था महर्षि दधीचि जी से अस्थियों का दान मांगना, उससे भी ज्यादा कठिन था, ऐसे तपस्वी, दयालु परोपकारी और ज्ञानी ऋषि के शरीर से देह और अस्थियों को अलग करना...
तब इस समस्या का समाधान करते हुए महर्षि दधीचि जी ने अपने शरीर पर मिष्ठान्न का लेपन किया और समाधिस्थ हो गए।
कामधेनु गाय ने उनके शरीर को चाटना आरंभ कर दिया। कुछ देर में महर्षि के शरीर की त्वचा, मांस और मज्जा उनके शरीर से विलग हो गए। मानव देह के स्थान पर सिर्फ उनकी अस्थियां ही शेष रह गईं।
जिन्हें देवता अपने साथ ले गए...
जैसे महर्षि दधीचि महान थे, वैसी ही पतिव्रता उनकी पत्नी गभस्तिनी भी थीं।
अतः जब उनकी पत्नी गभस्तिनी को पता चला कि महर्षि दधीचि ने देह त्याग दी है तो उन्होंने अपने गर्भ को पीपल के कोटर में रख दिया और महर्षि दधीचि के साथ सती हो गई।
देवताओं के राजा इन्द्र के लिए विश्वकर्मा जी ने महर्षि दधीचि की रीढ़ की हड्डियों से वज्र बनाया। जिसकी सहायता से, देवताओं ने युद्ध में विजय प्राप्त की।
पर देवताओं के इस विजय अभियान में, महर्षि दधीचि व गभस्तिनी का पुत्र पैदा होने से पहले ही अनाथ हो गया। क्या हुआ उनके पुत्र का? कैसे उसका जीवन व्यतीत हुआ? जानते हैं विरासत के अगले अंक में...
महर्षि दधीचि के पुत्र की कहानी तो अपने पिता से भी अधिक अविश्वसनीय और रोचक है.. आप सबसे अनुरोध है, उसे भी अवश्य पढ़िएगा, वह कहानी, बहुतों की अनसुनी कहानी होगी...
तब तक के लिए...
जय हिन्दुत्व जय भारत 🕉️ 🇮🇳