आज आप सब के साथ मुझे डेहरी ऑन सोन,रोहतास बिहार के उत्कृष्ट कहानीकार श्री विनय कुमार मिश्रा जी की कहानी share करते हुए अपार प्रसन्नता हो रही है।
हमारी किसी के प्रति बनाई गई धारणा, कितनी सही-कितनी ग़लत को बखूबी उजागर करती कहानी का आनन्द लीजिए।
बनिया
Image Courtesy: YouTube |
"तुम अब हर पैकेट पर चार रुपये बढ़ा कर लिया करो दुकानदारों से"
पत्नी और मैं दोनों मिलकर पापड़ बनाते और बहुत छोटे स्तर पर बेचते हैं। धंधा ज्यादा पुराना नहीं है। पर कुछ एक मोहल्ले में बिक्री बढ़ गई है। हम चालीस रुपये का पैकेट दुकानदार को देते हैं वे पचास में बेच देते हैं।
पास के ही ग्रामीण मोहल्ले से राजू बनिए का ऑर्डर सबसे ज्यादा आता है। इस महीने दो सौ पैकेट मांगा है उसने। दुकान भी बहुत चलती है उसकी। मैं उसी की दुकान पर था और यही बातें कर रहा था।
"राजू भाई! अब चौवालीस का पैकेट है ये, महंगाई बढ़ रही है हर चीज़ की तो.."
"अरे कैसी बात कर रहे हो, मैं मार्केट से बाहर थोड़ी हूँ, अभी पापड़ में लगने वाली किसी सामग्री का रेट नहीं बढ़ा"
"राजू भाई, मेहनत बहुत है, आप तो जानते हैं, दिनभर उसी में लगना है, फिर घूमकर कुछ दुकानों में दे आता हूँ। मुश्किल से बीस पच्चीस हज़ार कमा पाता हूँ"
वो मेरी बात सुनकर हँसने लगा। जैसे मैंने कोई मज़ाक कर दी हो।
"पापड़ अच्छा है आपका पर इसमें मैंने भी खूब मेहनत की है, शुरू में हर किसी को जबरजस्ती भी दे देता था, धीरे धीरे आदत लग गई यहां लोगों को आपके पापड़ की। और दो पैसे बचाऊंगा नहीं तो दुकान खोलने का क्या मतलब"
मैं बोलता रहा, वो मना करता रहा। बात मैंने सिर्फ दो रुपये बढ़ाने पर ले आया था। वे इसमें भी झिकझिक कर रहा था।अंत में सिर्फ एक रुपये बढ़ाये इसने पैकेट पर।
कितने सामान बेचता है और लाखों कमाता है।
महीने का दो चार सौ नहीं बढ़ा सकता ये।
हमारी मेहनत के पूरे पैसे भी नहीं देता।
कलयुग है , ऐसे ही लोगों की बरकत होती है!
सामने दुकान पर गेंदे के फूल की सूखी माला टंगी थी जो बता रहा था कि ये दुकान पर पूजा भी सिर्फ दीवाली के दीवाली करता है।
मैं पसीने को पोछ पत्नी को फोन ही लगाने वाला था दो सौ पैकेट रखने से पहले कि तभी एक जानी पहचानी बूढ़ी औरत जो अब लगभग पागल सी हो गई है वो दुकान पर चली आई
"दे दे बेटा.."
"हां माई एक मिनट रुक"
उसने उस बूढ़ी औरत को दूध ब्रेड और कुछ थोड़े बहुत सामान दिए।
औरत ने सामान लेकर जाते हुए जो कहा और इसने जो बोला वो मुझे आश्चर्य में डाल गया।
"पैसे तो बेटे ने डाल दिया था ना इस महीने? ये पैसे भी वो तुम्हें भेज देगा"
"हाँ.. हाँ माई पैसे मिल जाते हैं हर महीने" वो औरत सामान लेकर कुछ बड़बड़ाती हुई चली जा रही थी।
और मेरे लिए बहुत सारे सवाल छोड़ गई इस राजू बनिये से पूछने के लिए
"इसका तो अपना कोई नहीं अब।सिर्फ एक ही बेटा था जो शहर में कमाता था?
इस दुकान के सामने ही तो चौक पर पिछले साल शहर से आकर बस से उतरा था, और एक गाड़ी चढ़ गई थी उसपर? फिर ये पैसे कौन देता है?'
"पैसे कोई नहीं देता, ये बिचारी उस सदमे से बाहर ही नहीं आ पा रही है। सोचती है बेटा अब भी शहर में ही है" राजू बनिये को आज पहली बार उदास होते देखा था मैंने
"तो क्या हर महीने तुम पाँच सौ.. हज़ार का सामान इसे दे देते हो" इस बनिए का यह हिसाब मुझे समझ नहीं आ रहा था
"हाँ भाई.." राजू अपने कैलकुलेटर पर मेरा हिसाब कर रहा था और मैं मन ही मन राजू के इस अनजाने व्यवहार का। बरबस मुँह से निकल पड़ा
"भाई, मगर कबतक ऐसे ही देते रहोगे?"
उसकी आँखें इस सवाल पर भर आईं थीं
"जबतक इन्हें विश्वास है कि इनका बेटा ज़िंदा है! पता नहीं क्यूँ मैं उस माँ के इस भ्रम को टूटने नहीं देना चाहता"
मेरी आँखें भी भर आईं..राजू बनिए के इस जवाब को सुनकर..!
Disclaimer:
इस पोस्ट में व्यक्त की गई राय लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं। जरूरी नहीं कि वे विचार या राय इस blog (Shades of Life) के विचारों को प्रतिबिंबित करते हों। कोई भी चूक या त्रुटियां लेखक की हैं और यह blog उसके लिए कोई दायित्व या जिम्मेदारी नहीं रखता है।