सृष्टि की रचना के साथ ही त्रिदेवों ने अपने अपने कार्य निर्धारित कर लिए, जिसमें ब्रह्मा जी ने रचना, महादेव ने विध्वंस व श्री हरि ने सृष्टि के पालन का कार्य निर्धारित किया।
श्रीहरि ने जब पालन का कार्य निर्धारित किया है तो सृष्टि में सब सुचारू रूप से चले इसका दारोमदार भी उन पर है। धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि...
जिसके लिए उन्होंने समय-समय पर अवतार भी लिए और इसका जिक्र उन्होंने गीता में किया है
गीता में चौथे अध्याय के एक श्लोक में भगवान कृष्ण ने कहा है :
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
इसका अर्थ है, हे भारत, जब-जब धर्म की हानि होने लगती है और अधर्म बढ़ने लगता है, तब-तब मैं स्वयं की रचना करता हूं, अर्थात् जन्म लेता हूं। मानव की रक्षा, दुष्टों के विनाश और धर्म की पुनःस्थापना के लिए मैं अलग-अलग युगों (कालों) में अवतरित होता हूं।
इस तरह से भगवान विष्णु के दस अवतार हैं :
मत्स्य
वराह अवतार
कच्छप अवतार
नरसिंह
वामन
परशुराम
राम
कृष्ण
बुद्ध
कल्कि
कल्कि अवतार भगवान विष्णु का आखरी अवतार माना जाता है. कल्कि पुराण के अनुसार श्री हरि का 'कल्कि' अवतार कलियुग के अंत में होगा. उसके बाद धरती से सभी पापों और बुरे कर्मों का विनाश होगा।
आज अक्षय तृतीया है, जिसमें श्रीहरि के छठें अवतार भगवान परशुराम का जन्म हुआ था।
भगवान परशुराम जी के अद्भुत प्रसंग
भगवान परशुराम जी के जन्मोत्सव के उपलक्ष्य पर विरासत के आज के अंक में भगवान परशुराम जी से जुड़े कुछ प्रसंग साझा कर रहे हैं, जिससे हमारे बच्चे भी हमारी धरोहर से जुड़ें...
भगवान परशुराम ऊंचे- लम्बे कद के, गौर वर्ण के, बलिष्ठ शरीर वाले, आकर्षक पुरुष थे। यह जन्म से ब्राह्मण व कर्म से क्षत्रिय हैं।
आप सोच रहे होंगे कि थे होना चाहिए, हैं क्यों?
क्योंकि, पौराणिक कथाओं से विदित होता है कि परशुरामजी अमर हैं और सृष्टि के अंत तक वह धरती पर विराजमान रहेंगे
भगवान परशुरामजी को आवेश अवतार माना जाता है, पौराणिक कथाओं में भगवान परशुरामजी की कई ऐसी कथाओं का वर्णन मिलता है जिससे मालूम होता है कि परशुरामजी अत्यंत क्रोधी स्वभाव के हैं।
वैशाख मास की तृतीया तिथि के दिन भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुरामजी का अवतार हुआ। इसलिए हर साल वैशाख मास की तृतीया तिथि यानी अक्षय तृतीया के दिन परशुराम जयंती मनाई जाती है।
भगवान परशुराम का क्रोधी स्वभाव क्यों
भगवान परशुरामजी ऋषि जमदग्नि और माता रेणुका के पुत्र हैं। परशुरामजी कुल परंपरा के अनुसार ब्राह्मण हैं लेकिन इनका स्वभाव क्षत्रिय जैसा है। अपने क्रोध से इन्होंने कई बार धरती पर क्षत्रियों का विनाश कर दिया। लेकिन इनका स्वभाव क्रोधी कैसे हुआ इस विषय में एक कथा है कि इनकी दादी सत्यवती ने अपने व अपनी मां के पुत्र की प्राप्ति के लिए भृगु ऋषि की सेवा कर के उन्हें प्रसन्न किया। भृगु ऋषि ने सत्यवती को दो फल दिए थे जिनमें एक सत्यवती के लिए था और दूसरा उनकी माता के लिए था। लेकिन गलती से फलों में अदला बदली हो गई। इससे भृगु ऋषि ने सत्यवती से कहा कि तुम्हरा पुत्र क्षत्रिय स्वभाव का होगा। तो सत्यवती ने भृगु ऋषि से प्रार्थना की और कहा कि ऐसा आशीर्वाद दीजिए जिससे कि मेरा पुत्र ब्राह्मण जैसा हो और मेरा पौत्र क्षत्रिय गुणों वाला हो। भृगु ऋषि के आशीर्वाद से ऐसा ही हुआ परशुरामजी ऋषि जमदग्नि की पांचवी संतान हुए जो बाल्यावस्था से ही क्रोधी स्वभाव के थे।
राम बने परशुराम
भगवान परशुरामजी के माता-पिता ने इनका नाम राम रखा था। इन्हें ऋषि जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्नय भी कहा जाता है। लेकिन यह परशुरामजी के नाम से अधिक विख्यात हैं।
परशुरामजी भगवान शिव के भक्त और शिष्य भी हैं। इनकी भक्ति, योग्यता को देखते हुए भगवान शिवजी ने इन्हें अपना विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्रदान किया था। सदैव परशु धारण करने के कारण यह जगत में परशुराम नाम से विख्यात हैं।
पिता के परम भक्त भगवान परशुराम
हैहय वंश का सम्राट सहस्त्रार्जुन अपने घमंड में चूर होकर धर्म की सभी सीमाओं को लांघ चुका था। उसके अत्याचारों से जनता त्रस्त हो चुकी थी। वेद-पुराण और धार्मिक ग्रंथों को मिथ्या बताकर ब्राह्मण का अपमान करना, ऋषियों के आश्रम को नष्ट करना, उनका अकारण वध करना, प्रजा पर निरंतर अत्याचार करना, यहां तक कि उसने अपने मनोरंजन के लिए मदिरा के नशे में चूर होकर स्त्रियों के सतीत्व को भी नष्ट करना शुरू कर दिया था।
एक बार सहस्त्रार्जुन अपनी पूरी सेना के साथ जंगलों से होता हुआ जमदग्नि ऋषि के आश्रम में विश्राम करने के लिए पहुंचा। महर्षि जमदग्रि ने भी सहस्त्रार्जुन को अपने आश्रम का मेहमान समझकर खूब स्वागत सत्कार किया। कहते हैं ऋषि जमदग्रि के पास देवराज इंद्र से प्राप्त दिव्य गुणों वाली कामधेनु नामक चमत्कारी गाय थी।
जमदग्नि ऋषि ने कामधेनु गाय के मदद से देखते ही देखते कुछ ही पलों में सहस्त्रार्जुन की पूरी सेना के लिए भोजन का प्रबंध कर दिया। कामधेनु गाय की ऐसी अद्भुत शक्तियों को देखकर सहस्त्रार्जुन के मन में उसे पाने की इच्छा जाग उठी। उसने ऋषि जमदग्नि से कामधेनु को मांगा, लेकिन उन्होंने ये कहकर उसे देने से इनकार कर दिया कि यह गाय ही उनके जीवन के भरण-पोषण का एकमात्र जरिया है। लेकिन घंमडी सहस्त्रार्जुन कहां मानने वाला था।
सहस्त्रार्जुन ने क्रोध में आकर ऋषि जमदग्नि के आश्रम को उजाड़ दिया और कामधेनु गाय को अपने साथ ले जाने लगा, लेकिन तभी कामधेनु सहस्त्रार्जुन के हाथों से छूट कर स्वर्ग की ओर चली गई। इसके बाद जब भगवान परशुराम अपने आश्रम पहुंचे तो अपने आश्रम को तहस-नहस देखकर और अपने माता-पिता के अपमान की बातें सुनकर क्रोध में आ गए और उन्होंने उसी वक्त सहस्त्रार्जुन और उसकी सेना का नाश करने का संकल्प लिया।
परशुराम भगवान शिव द्वारा दिए महाशक्तिशाली फरसे को साथ लेकर सहस्त्रार्जुन के नगर महिष्मती पहुंचे, जहां परशुराम और सहस्त्रार्जुन व उसकी सेना के बीच भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें परशुराम ने अपने प्रचण्ड बल से सहस्त्रार्जुन की हजारों भुजाएं और धड़ परशु (फरसा) से काटकर कर उसका वध कर दिया।
सहस्त्रार्जुन के वध से जमदग्नि ऋषि बहुत दुःखी हुए। उन्होंने कहा कि, पुत्र तुम्हें इस रक्तपात के लिए प्रायश्चित करना चाहिए। परशुराम पिता के परम भक्त थे। अतः ऋषि जमदग्नि के आदेशानुसार प्रायश्चित करने के लिए तीर्थ यात्रा पर चले गए।
लेकिन तभी मौका पाकर सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने अपने सहयोगी क्षत्रियों की मदद से तपस्यारत ऋषि जमदग्रि का उनके ही आश्रम में सिर काटकर वध कर दिया। सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने आश्रम के सभी ऋषियों का भी वध करते हुए, आश्रम को जला दिया। तभी माता रेणुका ने सहायता वश अपने पुत्र परशुराम को विलाप स्वर में पुकारा।
जब परशुराम माता की पुकार सुनकर आश्रम पहुंचे तो माता को विलाप करते देखा और वहीं पास ही पिता का कटा सिर और उनके शरीर पर 21 घाव देखे। पिता की मृत्यु व शरीर पर 21 घावों को देखकर पिता के परम भक्त परशुराम बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने शपथ ली कि वह हैहय वंश का ही नहीं बल्कि समस्त क्षत्रिय वंशों का 21 बार संहार कर भूमि को क्षत्रिय विहिन कर देंगे और उन्होंने अपने इस संकल्प को पूरा भी किया था, जिसका उल्लेख पुराणों में भी मिलता है।
भगवान श्री राम और भगवान परशुराम प्रसंग
ऐसी कथा है कि सीता स्वयंवर के समय जब भगवान राम ने भगवान शिवजी का धनुष तोड़ा तब पृथ्वी कांप उठी।
परशुरामजी के पता चला कि भगवान शिवजी का धनुष किसी ने तोड़ दिया है। इस पर मन की गति से चलने वाले परशुरामजी तुरंत महाराजा जनक के दरबार में पहुंच गए और भगवान शिवजी का धनुष तोड़ने पर भगवान राम को युद्ध के लिए ललकारने लगे।
उस समय भगवान राम ने परशुरामजी को यह आभास कराया कि वह भगवान विष्णु के अवतार हैं। भगवान राम का रहस्य जानने के बाद परशुरामजी का क्रोध शांत हो गया और भगवान श्रीराम ने उनके अहंकार का नाश कर दिया।
साथ ही भगवान राम ने परशुरामजी को अमर रहने का वरदान देते हुए यह जिम्मेदारी सौंपी कि आप मेरे अगले अवतार होने तक मेरा सुदर्शन चक्र संभालकर रखें। अगले अवतार में मुझे इसकी आवश्यकता होगी तब आप मुझे यह लौटा दीजियेगा..
भगवान श्रीकृष्ण व भगवान परशुराम का प्रसंग
भगवान विष्णु ने जब द्वापर में श्रीकृष्ण अवतार लिया तब परशुरामजी और भगवान श्रीकृष्ण की भेंट उस समय हुई जब भगवान श्रीकृष्ण गुरु सांदीपनि के आश्रम में शिक्षा प्राप्त कर वापस अपने घर लौटने की तैयारी में थे।
उस समय परशुरामजी ऋषि सांदीपनी के आश्रम में पधारे और भगवान श्रीकृष्ण को उनका सुदर्शन चक्र लौटाते हुए कहा कि अब यह युग आपका है।
आप अपना यह सुदर्शन चक्र संभालिए और धरती पर पाप का भार बहुत बढ़ गया है उस भार को कम कीजिए।
ऐसे ही और भी अनेकों अद्भुत प्रसंगों से परिपूर्ण हैं श्रीहरि के छठे अवतार भगवान परशुराम जी...
भगवान परशुराम जी ने हमें प्रेरित किया कि हमें अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए, विलाप करने या दूसरों पर आश्रित रहने के बजाय, खुद को सशक्त करना चाहिए और अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। उनके इस गुण को जो भी अपनाएगा, उसे सफलता अवश्य मिलेगी।
साथ ही अपने माता-पिता के लिए अपना सर्वस्व समर्पित करना चाहिए, क्योंकि जिसके साथ माता-पिता का आशीर्वाद रहता है, उसे सर्वस्व मिल जाता है, ईश्वर कृपा, सफलता, समृद्धि, ऐश्वर्य और अमरता भी..
आप सभी को अक्षय तृतीया व परशुराम जन्मोत्सव पर हार्दिक शुभकामनाएं 💐🙏🏻