House number 1303
रतन, महोबा के नज़दीक के एक गांव में रहता था। बहुत ही सीधा साधा और मासूम सा लड़का था।
जब उसने बारहवीं कक्षा पास कर ली, तो आगे की पढ़ाई और नौकरी के लिए उसने सोचा कि दिल्ली चला जाए।
माँ- बाबूजी भी तैयार थे, क्योंकि सबको ही यह लगता था कि जीवन तो बड़े शहरों में ही है। गांवों में तो केवल संघर्ष ही है।
और उनकी इस सोच को पुख्ता, उनके दूर के रिश्तेदार नीरज ने बनाया था।
दरअसल वो जब से दिल्ली गया था, बाकी लोगों को यहाँ के सब्जबाग दिखाता रहता था।
कुछ भी काम टिककर तो वो कर नहीं सकता था, साथ ही कामचोर और आलसी भी था। इसलिए शहर में छोटा-मोटा काम ही कर रहा था, फिर भी, शान बघारने के लिए, हमेशा कहा करता कि बहुत ठाठ बाट का जीवन जी रहा है।
सब सोचते कि जब नीरज जैसे लड़के के इतने ठाठ-बाट हैं तो रतन तो हर बात में नीरज से होशियार है, तब फिर इसके तो कितने ही ठाठ-बाट रहेंगे।
रतन ने दिल्ली आने की तैयारी आरंभ कर दी। बाबूजी बोले, हम भी चलते हैं तुम्हें शहर छोड़ने...
पर रतन ने मना कर दिया, बोला नीरज भैया तो हैं ना वहाँ, अचानक पहुंचकर उन्हें surprise दूंगा और उन्हीं के साथ कालेज, नौकरी और घर सब देख लूंगा।
एक बार घर हो जाए, फिर आप को बुला लूंगा।
बाबूजी मान गए, उन्हें लगा कि वैसे भी किराया भाड़ा हर चीज़ का बहुत ज्यादा है। फिर शहर में अप में कोई ठौर ठिकाना भी नहीं है। पता नहीं नीरज के पास भी कितना जगह है रहने की।
अभी रतन का जाना जरूरी है। ठीक ही कह रहा है रतन, जब वो अपना घर द्वार देख लेगा, तबहिं चले जाएंगे।
बस फिर क्या था, रतन पहुंच गया दिल्ली और फिर नीरज के घर की ओर चल दिया...
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