स्नेह भवन (भाग -1) और
स्नेह भवन (भाग -2) के आगे ...
“वो इस घर की पुरानी मालकिन हैं।”
स्नेह भवन (भाग -2) के आगे ...
स्नेह भवन (भाग -3)
“क्या? मगर ये घर तो हमने मिस्टर शांतनु से ख़रीदा है।”
“ये लाचार बेबस बुढ़िया उसी शांतनु की अभागी माँ है, जिसने पहले धोखे से सब कुछ अपने नाम करा लिया और फिर ये घर हमें बेचकर विदेश चला गया, अपनी बूढ़ी मां स्नेहा जी को एक वृद्धाश्रम में छोड़कर......
छी!… कितना कमीना इंसान है, देखने में तो बड़ा शरीफ़ लग रहा था।”
ऋषि का चेहरा वितृष्णा से भर उठा. वहीं नीरजा याद्दाश्त पर ज़ोर डाल रही थी।
“हां, याद आया. store room की सफ़ाई करते हुए इस घर की पुरानी नेमप्लेट दिखी थी।उस पर ‘स्नेह भवन’ लिखा था, वहीं एक राजसी ठाठ-बाटवाली महिला की एक पुरानी फ़ोटो भी थी।
उसका चेहरा ही इस बुढ़िया से मिलता था, तभी मुझे लगा था कि इसे कहीं देखा है।
उसका चेहरा ही इस बुढ़िया से मिलता था, तभी मुझे लगा था कि इसे कहीं देखा है।
मगर अब यह यहां क्यों आती हैं?
क्या घर वापस लेने? पर हमने तो इसे पूरी क़ीमत देकर ख़रीदा है।” नीरजा चिंतित हो उठी।
“नहीं, नहीं. आज इनके पति की पहली बरसी है। ये उस कमरे में दीया जलाकर प्रार्थना करना चाहती हैं, जहां उन्होंने अंतिम सांस ली थी।”
ये क्या बात हुई ? “इससे क्या होगा, मुझे तो इन बातों में कोई विश्वास नहीं.” नीरजा तुनक कर बोली।
“तुम्हें न सही, उन्हें तो है और अगर हमारी हां से उन्हें थोड़ी-सी ख़ुशी मिल जाती है, तो हमारा क्या घट जाएगा?” ऋषि शांत स्वर में बोला।
“ठीक है, आप उन्हें बुला लीजिए।” अनमने मन से ही सही, मगर नीरजा ने हां कर दी।
स्नेहा जी आ गईं. क्षीण काया, तन पर पुरानी सूती धोती, बड़ी-बड़ी आंखों के कोरों में कुछ जमे, कुछ पिघले से आंसू. अंदर आकर उन्होंने ऋषि और नीरज को ढेरों आशीर्वाद दिए।
नज़रें भर-भरकर उस पराये घर को देख रही थीं, जो कभी उनका अपना था। आंखों में कितनी स्मृतियां, कितने सुख और कितने ही दुख एक साथ तैर आए थे।
वो ऊपरवाले कमरे में गईं, कुछ देर आंखें बंद कर बैठी रहीं। बंद आंखें लगातार रिस रही थीं।
फिर उन्होंने दीया जलाया, प्रार्थना की और फिर वापस से दोनों को आशीर्वाद देते हुए कहने लगीं, “मैं इस घर में दुल्हन बनकर आई थी।सोचा था, अर्थी पर ही जाऊंगी, मगर…” स्वर भर्रा आया था।
“यही कमरा था मेरा। कितने साल हंसी-ख़ुशी बिताए हैं यहां अपनों के साथ, मगर शांतनु के पिता के जाते ही…” आंखें पुनः भर आईं।
ऋषि और नीरजा नि:शब्द बैठे रहे. थोड़ी देर घर से जुड़ी बातें कर स्नेहा जी भारी क़दमों से उठीं और चलने लगीं।
पैर जैसे इस घर की चौखट छोड़ने को तैयार ही न थे, पर जाना तो था ही।
उनकी इस हालत को वो दोनों भी महसूस कर रहे थे।
एकदम से जाने क्या सोचकर नीरजा की आँखों में एक चमक सी आ गयी“आप ज़रा बैठिए, मैं अभी आती हूं.” , वो स्नेहा जी को रोककर कमरे से बाहर चली गई और इशारे से ऋषि को भी बाहर बुलाकर कहने लगी......
आगे पढें स्नेह भवन(भाग -4) में......
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