गर्मी अपने पुरजोर पर है, हर जीव त्राहि-त्राहि कर रहा है। फिर वो पेड़-पौधे हों या जीव-जन्तु, या हों पशु-पक्षी या इंसान, सब की हालत त्रस्त है।
ना पानी है ना छाया..., है तो बस कंक्रीट की दीवारें और पैसों की माया। और इसके जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ हम इंसान हैं और हमारा हद का स्वार्थ और अथाह लालच।
आधुनिकता की अंधी दौड़ और बेपनाह पाने की जिद्द ने हमें इस कगार पर ला दिया।
सोचिए जरा एक बार…
कारण भीषण गर्मी का
हमें नदी से पानी नहीं रेत चाहिए, वृक्ष से छाया नहीं लकड़ी चाहिए, पहाड़ों से औषधि नहीं पत्थर चाहिए, खेत से अन्न नहीं नकदी फसल चाहिए।
बस इस अंतहीन भूख ने नदियों को सुखाकर रेत समेट ली, और बना दी चौड़ी कंकरीली सड़क, पहाड़ तोड़कर बटोर लिए पत्थर मकान के लिए और पेड़ों का अस्तित्व बदलकर नक्काशीदार खिड़की और दरवाज़े बना डाले।
और अन्न, उसका तो कहना कि क्या, थोड़ा ज्यादा अनाज, थोड़ा और, थोड़ा और की इच्छा ने अन्न को धीमे-धीमे, slow poison बना दिया है। मतलब अन्न, जो कि जीवनदायनी होना चाहिए, वो और की चाहत में मौत का सामान हो गया ...
वाह रे इंसान! क्या छोड़ा पृथ्वी पर उसके अस्तित्व के लिए, उसे तुम्हें खुशहाल रखने के लिए?
कितनी सटीक हैं यह lines, जिसने भी लिखी है :
अब भटक रहे हैं !!
सूखे कुओं में झाँकते,
रीती नदियाँ ताकते,
झाड़ियां खोजते लू के थपेड़ों में,
बिना छाया के ही हो जाती सुबह से शाम !!
और गली-गली ढूंढ़ रहे हैं आक्सीजन,
फिर भी सब बर्तन खाली !!
सोने के अंडे के लालच में,
मानव ने मुर्गी मार डाली !!
बस सिर्फ यही और यही कारण हैं, भीषण गर्मी के...
और आपको पता है, प्रकृति में वो क्षमता है कि वो हर क्षण अपने को revive कर सकती है, अगर आज से भी हम प्रकृति को संवारने की ओर ध्यान केंद्रित करेंगे तो वो फिर से जीवन को सुख और समृद्धि से भर देगी, यकीन ना हो तो याद कीजिए, lockdown के बाद पूरी प्रकृति rejuvenate हो गई थी... मात्र चंद महीनों में...
जीवन के लिए ज़रूरी है, जीवन प्रकृति का...
उसमें मौजूद रहना नदी, पेड़, पहाड़, दरिया, पशु-पक्षी का…
अगर सुख-चैन चाहिए तो इस बात का ध्यान तो रखना ही पड़ेगा…
दीपावली और होली पर उधम मचाने वालों, कुछ ध्यान दिनभर चलते AC और दौड़ती कारों पर रोक लगाने पर भी देना, त्यौहारों से रौनक कम करने से ज्यादा ज़रूरी है, अपने सुख का कुछ परित्याग...
कर सकेंगे??