भक्ति और विश्वास
नरेश जी की
सर्राफा बाज़ार में सोने चाँदी की ऊंची दुकान थी। उनकी जितनी ऊंची दुकान थी। स्वभाव भी उतना
ही अच्छा था। वो देवी माँ के
परम भक्त थे। दिन में दो बार माँ की आरती आराधना किया करते। दुकान में काम करने
वालों को कभी नौकर नहीं मानते थे। उन्हें भी घर के सदस्य के समान ही मानते थे।
सबके अच्छे बुरे सब में हमेशा शामिल रहा करते थे।
उनकी पत्नी रूपा भी उनके ही समान थीं। इतने अच्छे सेठ-सेठानी को पाकर उनके यहाँ काम
करने वाले भी उन पर अपनी जान छिड़कते थे। सब अच्छा चल रहा था। कमी थी तो बस एक बात की। कि नरेश जी
के कोई बच्चा नहीं था।
किसी ने उनसे
कहा, अगर
वो वैष्णो देवी के
दरबार में जाएँ, तो माँ प्रसन्न होकर पुत्र प्रदान
कर सकती हैं।
जब ये बात
नरेश जी को पता चली, तो दोनों ने तुरंत ही
माँ के दरबार जाने का फैसला कर लिया।
माँ के दरबार की चढ़ाई के
लिए सब बोले, घोड़ा या गाड़ी
कर लेते हैं। पर वे पैदल ही गए।
वहाँ उन्होंने कई दिन तक, आने
वालों के लिए निशुल्क भोजन व जल की व्यवस्था करवा दी।
माँ अपने
भक्त से प्रसन्न हो गयीं। उन्होंने नरेश जी को सपने में दर्शन दिया। वे बोली बताओ
तुम्हें क्या चाहिए। वे बोले माँ
आपकी कृपा से मेरे पास सब कुछ बहुत अच्छा है। पर मेरे बाद सब कुछ संभालने वाला भी
कोई नहीं होगा। क्या आप मुझे पुत्र का
वरदान दे सकती हैं?
माँ ने कहा, तुम्हारे नसीब में
पुत्र नहीं है। मैं दे भी दूँ तो
वो 21 वर्ष में मर जाएगा। माँ आप मुझे दे दीजिये। ये जानते हुए भी कि
वो 21 साल बाद नहीं रहेगा। हाँ माँ आप मुझे दे दीजिये। मुझे अपनी भक्ति और आप पर इतना विश्वास है, कि आप मेरे
पुत्र को जीवन दान दे ही देंगी।
कुछ दिनों
बाद ही उनके पुत्र पैदा हुआ। माँ
के आशीर्वाद से वो हुआ था, अतः उसका नाम दुर्गाशीष ही रखा।
नरेश जी ने माँ की पूजा आराधना और बढ़ा दी। माँ का
एक भव्य मंदिर बनवा दिया। जहाँ कोई चढ़ावा चढ़ाना माना था। पर वहाँ आने वाले गरीब व असहाय भक्तों को भोजन भी प्रदान
किया जाता था। जिसके बदले में उनसे पैसे नहीं लिए जाते थे, बल्कि श्रम दान लिया जाता
था। जैसे कोई मंदिर साफ करता, तो कोई
भोग बनाता; जो जिस योग्य होता उसे वैसा ही काम दिया
जाता।
इस तरह से
लोगों को भोजन की तलाश में ना तो भटकना पड़ता था, ना ही
गलत काम करना पड़ता। साथ ही माँ
के भक्तों की संख्या भी बढ़ने लगी।
जब दुर्गाशीष
16 साल का हुआ तो, नरेश जी ने मंदिर की सारी
ज़िम्मेदारी दुर्गाशीष को सौंप दी। वो भी माँ का बड़ा भक्त था। बड़ी जतन से माँ और उनके भक्तों की
सेवा में जुट गया। नरेश जी ने मेहुल
को इन सब काम में दुर्गाशीष का हाथ बंटाने के लिए रख दिया।
जब दुर्गाशीष
21 साल का होने को आया, तो नरेश जी ने मेहुल से कहा, कि अब वो
दिन रात दुर्गाशीष के साथ रहे। आखिर वो दिन भी आ गया। जब दुर्गाशीष 21 साल का हुआ।
उस दिन सुबह से ही उसकी तबीयत खराब होने लगी। फिर भी वो मंदिर गया। वहाँ जब उसकी हालत और खराब
हो गयी। तो मेहुल बोला, भैया जी, आप अंदर
आराम कर लीजिये। भोग बन जाने पर मैं
आपको बुला लूँगा। भोग बनने पर जब वो दुर्गाशीष को उठाने गया। तो वो मर चुका था। उसने तुरंत नरेश जी को फोन किया। सेठ जी
भैया जी नहीं रहे।
नरेश जी व
उनकी पत्नी तुरंत मंदिर पहुँच गए। वहाँ जा कर उन्होंने पहले माँ की आरती की, फिर सबको भोग
बांटा गया। उसके बाद, उन्होंने सब को बता दिया कि दुर्गाशीष
अब इस दुनिया में नहीं रहा। अतः मैं व मेरी पत्नी भी अपना जीवन समाप्त करने वाले
हैं। अतः ये मंदिर भी अब बंद हो
जाएगा।
ऐसा सुन कर
सभी समवेत स्वर में माँ की आराधना करने लगे। उस समय सभी एक ही प्रार्थना कर रहे थे, कि माँ दुर्गाशीष
के प्राण लौटा दें।
इतने भक्तों की
प्रार्थना माँ ठुकरा नहीं सकीं, उन्होंने दुर्गाशीष
को जीवन दान दे दिया। और उसी रात माँ नरेश
जी के स्वप्न में आयीं। और बोलीं, तू मेरा सच्चा भक्त है। तेरी भक्ति और
विश्वास से मैं अति प्रसन्न हुई हूँ। तूने ना केवल मेरी भक्ति की है, बल्कि मेरे अन्य
भक्तों को भी सही मार्ग प्रदान किया है, इसलिए मैंने तेरे पुत्र को जीवन-दान दिया है।
नरेश जी व उनके पुत्र ने माँ की सेवा में ही
अपना जीवन व्यतीत कर दिया।