जन्माष्टमी के पावन अवसर पर हर जगह
मुरली वाले की धूम है, चाहे वो गोकुल के कान्हा हों, मथुरा
के कृष्णा हों, या
मुंबई के गोविंदा हों। नाम अलग अलग हों, पर
धूम तो पूरे
हिंदुस्तान में मची हुई है। शायद ही भारत में कोई ऐसा बच्चा हो, जो
अपने बचपन में कान्हा ना बना
हो, क्योंकि
हर माँ को अपने
बच्चे में कान्हा नज़र आता है।
माँ को कान्हा नज़र आता है
कान्हा को तो देखा नहीं,
पर हर माँ को अपने बच्चे में,
कान्हा नज़र आता है।
जब वो खिलखिलाता है,
जब वो मुस्काता है,
सब के जी को ललचाता है,
माँ को कान्हा नज़र आता है।
उसकी ठुमक ठुमक चाल में,
काले घुँघराले बाल में,
जब वो सबका दिल लुभाता है,
माँ को कान्हा नज़र आता है।
उसकी मीठी मीठी बातों में,
दिन में या रातों में,
जब वो सबका दिल चुराता है,
माँ को कान्हा नज़र आता है।
करके कोई शरारतें जब वो,
कहीं जा के छिप जाता है,
माँ के हाथ नहीं आता है,
माँ को कान्हा नज़र आता है।
उसके नृत्य में गान में,
किसी भी अच्छे काम में,
जब सारा जहाँ झूम जाता है,
माँ को कान्हा नज़र आता है।
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