आधुनिकता कहीं अंत
तो नहीं!!
हम लोग आधुनिकता की अंधी दौड़ में दौड़ते हुए ना जाने किस राह पर चलते जा रहे हैं? शायद अंत की ओर...
आप कहेंगे कि, यह हम कैसे कह रहे हैं? तो हम आपको बहुत सारे प्रमाण देते हैं। फिर आप ही बताइएगा कि क्या सही है...
आज कल हम सभी के पास अपने बचपन से ज़्यादा सुख-समृद्धि है। पहले से दूध, दही, मेवा, मिठाई, अनाज, फल-सब्जियां, आदि सभी सामान तो हमारे पास बचपन से ज़्यादा है।
पंखा, कूलर, एसी, मोटरसाइकिल, कार, फ्रीज, टीवी, आदि, जिसने बचपन में जिसका भी सुख लिया है, उससे ज्यादा ही सबके पास..
फिर भी ना हम स्वस्थ हैं, ना सुखी, ना चिंताओं से मुक्त, ना संतुष्ट...
क्यों? आखिर ऐसा क्यों?
जब सब ही पहले से बेहतर, आधुनिक और सुव्यवस्थित है, तो ऐसा क्यों?...
इसका कारण है, कुछ घटक
- आधुनिकता, जो सबसे पहले पायदान पर है...
- धनलोलुपता, एक और बहुत बड़ा कारण...
- अनावश्यक भूख (आगे बढ़ने की, महत्वकांक्षाओं की)...
- बहुत अधिक दवाओं का उपयोग...
- अपनों से दूरी...
चलिए सबके बारे में एक, एक करके सोचते हैं..
पहले खाना बनाने के लिए और खाना खाने के लिए, मिट्टी, तांबे, लोहे के बर्तन इस्तेमाल होते थे। चूल्हे पर खाना बनता था, मटके में पानी होता और जमीन में बैठकर खाते थे। लोग खूब घी, मक्खन, दूध, दही, मीठा, तीखा खाते, पर तब लोग, सुखी भी थे, स्वस्थ भी और संतुष्ट भी...
फिर हो गया,
आधुनिकता का प्रवेश,
चूल्हे की जगह, गैस और माइक्रोवेव ने ले ली, बर्तन भी बदल गये, प्लास्टिक स्टील और एल्यूमीनियम की बहुतायत हो गई, मटके की जगह, RO और refrigerator ने ले ली। ज़मीन की जगह dinning table ने ले ली। घी, मक्खन की जगह, olive oil, refined oil ने ले ली।
Gym, aerobics सब शुरू हो गया, पर results -
लोग, ना सुखी हैं, ना स्वस्थ और ना संतुष्ट...
धनलोलुपता
धनलोलुपता के आगे, सब फीका, ना बचपन, ना मासूमियत, ना बच्चे की किलकारी, ना प्यार, ना ममता।
बहुत अधिक धन कमाने की चाह में, जो चीजें हमें खुशी देती है, उसे खुद से दूर करते जा रहे हैं। हम अपना पूरा ध्यान और समय, सिर्फ और सिर्फ, इस उधेड़बुन में निकाल देते हैं कि धन कैसे प्राप्त करें।
अनावश्यक भूख (आगे बढ़ने की, महत्वकांक्षाओं की)
हमें जितने की आवश्यकता है, उससे बहुत ज्यादा पाने की हमारी चाह ने हमें बहुत अधिक महत्वाकांक्षी बना दिया है। जिसके कारण, हम जरुरत से ज्यादा ही busy हो गये हैं और उसमें हम अपने अतुलनीय सुख की तिलांजलि दे रहे हैं।
पहले खेती होती थी, तब बीज से लेकर खाद तक, सब natural होता था। फसल का उत्पादन थोड़ा कम होता था। अनाज, फल-सब्जियों का रखरखाव भी natural होता था, अनाज सालों और दिनों, फल-सब्जियां सही बने रहते थे।
ऐसे ही दूध के साथ भी था, गाय-भैंस, जितना दूध देती थी, उसे ही घर घर पहुंचाया जाता था। ऐसे अनाज और दूध को जब लोग खाते थे, तो स्वस्थ रहते थे।
लोगों के पास समय था, एक दूसरे को समझने का, सुख-दुख साझा करने का, इसलिए सुखी भी थे और संतुष्ट भी...
बहुत अधिक दवाओं का उपयोग
अब बहुत अधिक दवाओं का उपयोग होने लगा है; वैसे यह भी आधुनिकता का ही दूसरा रूप है। आज हर चीज के लिए दवाएं मौजूद है।
खेतों में पैदावार बढ़ानी हो - दवा डाल दो - फसल दोगुनी-चौगुनी हो जाएगी; अनाज, सब्ज़ी, फल, सब double size के हो जाएंगे।
फिर इन सब को लंबे समय तक store करके रखना हो, तो फिर वही, दवा डाल दो। ऐसे ही गाय-भैंस को injections लगाकर, अधिक दूध निकाल लेते हैं...
अब जब हर step पर दवा ही डलेगी, तो आप को क्या लगता है?
नहीं समझे, ऐसे अनाज और फल-सब्जियों को digest करने के लिए दवा ही खानी पड़ेगी या इन्हें खाने से जब स्वास्थ्य खराब होगा तो उसके लिए दवाएं खाइए।
मतलब बात दवा से शुरू हो कर दवा पर ही खत्म हो रही है।
और लोग हैं कि तबियत ख़राब होने का सारा ठीकरा, घी, सरसों तेल, मक्खन, दूध, मिठाई, नमक पर फोड़कर, उसकी जगह olive oil, margarine, refind oil, rock salt, sugar free, etc. को देकर, नित नए विकल्प खोजते रह रहे हैं।
जनाब, घी तेल बदलने से नहीं, बल्कि आप को खुद को बदलने की आवश्यकता है...
आवश्यकता है, उस सोच की, जिसमें मंथन किया जाए कि हमें किस हद तक, आधुनिकता चाहिए? हर आधुनिक वस्तुएं बेकार नहीं है, पर यह विचार एक बार अवश्य करें कि उसका प्रभाव, आपके भविष्य में कितना कारगर सिद्ध होगा।
जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए धन आवश्यक है, पर धन ही जीवन नहीं है, एक बार विचार अवश्य करिएगा कि आप कहीं बहुत अधिक धन कमाने की चाह में, उस धन से भी ज्यादा बेशकीमती लम्हे खो तो नहीं रहे हैं? क्योंकि आप कितना भी ज्यादा कमा लीजिए, वो बेशकीमती पल और खुशियां वापस नहीं आने वाले...
अपनों से दूरी
जो आप को सबसे ज्यादा सुखी, स्वस्थ और संतुष्ट कर सकता है, वो है, आप कितने ज़्यादा naturally रह रहे हैं, कितने संतोषी हैं, कितने positive attitude वाले हैं, आधुनिकता की अंधी दौड़ में कितना शामिल हैं, कितना ज्यादा अपनों को महत्व देते हैं, आप कितना कम स्वार्थी हो, कितना अपनों के साथ रहते हैं...
बस यही है, जो हमारी भारतीय संस्कृति की विशेषता थी, जिसे हम धीरे-धीरे छोड़ते जा रहे हैं, कभी आधुनिकता के नाम पर, कभी व्यस्तता के नाम पर, कभी जरूरत के नाम पर।
जिस दिन हम अपनी संस्कृति को समझ जाएंगे, उस दिन से हम स्वस्थ रहेंगे, सुखी भी होंगे और संतुष्ट भी...
अंत आने से पहले एक बार विचार अवश्य करें - आधुनिकता कहीं अंत तो नहीं??