छठ पूजा
भारत त्यौहारों का देश है यहां पर सभी धर्मों के विभिन्न प्रकार के त्यौहार और उत्सव मनाए जाते हैं उन्हीं में से एक छठ पूजा है जो कि हिंदू धर्म को मानने वाले लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण त्यौहार है।
छठ पूजा हिन्दू धर्म का एक मुख्य पर्व है इस दिन भगवान सूर्य और छठ माता की पूजा की जाती है। छठ पूजा का पर्व कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को पड़ता है। यह प्रमुख रूप से बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश राज्य में मनाया जाता है।
छठ पूजा के दिन श्रद्धालु गंगा नदी के तट पर आकर पवित्र जल में स्नान करते हैं |
छठ पूजा के त्यौहार का आयोजन चार दिन तक किया जाता है इन दिनों में अलग-अलग विधियों द्वारा इस त्यौहार को धूमधाम व हर्षोल्लास से मनाया जाता है।
प्रथम दिवस :
छठ पूजा के पहले दिन घर की साफ-सफाई करके पवित्र किया जाता है इसके बाद छठव्रती स्नान करती हैं, शुद्ध शाकाहारी भोजन बनाती हैं, पहले दिन भोजन में चने की दाल, लौकी की सब्जी और रोटी का सेवन किया जाता है।
सर्वप्रथम भोजन व्रत करने वाली महिला द्वारा किया जाता है उसके बाद परिवार के अन्य सदस्य भोजन ग्रहण करते है। हिंदू calendar के अनुसार इस दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी होती है और छठ पूजा के पहले दिन को “नहाय खाय”के नाम से भी जाना जाता है।
द्वितीय दिवस :
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, छठ पूजा के दूसरे दिन छठ मैया की पूजा की जाती है और उनसे संतान प्राप्ति और दीर्घायु की कामना की जाती है।
मान्यता है कि छठ के दूसरे दिन छठी मैया घर-घर आती हैं और अपना शुभ आशीष देती हैं। छठ मैया की वजह से ही इस पर्व का नाम छठ पड़ा है।
छठ पूजा का दूसरा दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी का होता है। इस दिन व्रती महिलाएं पूरे दिन उपवास करती हैं और शाम को डूबते सूर्य को अर्ध्य देती हैं। इसके बाद छठव्रती भोजन ग्रहण करती हैं।
इस दिन गुड़ की खीर, चावल का पीठा और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है। त्यौहार को और आनंदमय बनाने के लिए आसपास के पड़ोसियों को भोजन पर आमंत्रित किया जाता है। छठ पूजा के दूसरे दिन को कुछ जगहों पर “लोहंडा” और कुछ पर “खरना” कहा जाता है।
तृतीय दिवस :
तीसरा दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी का होता है। यह सबसे महत्वपूर्ण दिन होता है, इस दिन महिलाएं निर्जला व्रत रखती है, और शाम को अपने सामर्थ्य के अनुसार सात, ग्यारह, इक्कीस व इक्यावन प्रकार के फल-सब्जियों और अन्य पकवानों को बांस की डलिया में लेकर व्रती महिला के पति या फिर पुत्र नदी या तालाब के किनारे जाते है।
नदी और तालाब की तरफ जाते समय महिलाएं समूह में छठी माता के गीतों का गान करती है। नदी के किनारे पहुंचकर पंडित जी से महिलाएं पूजा करवाती है और कच्चे दूध का अर्ध्य डूबते हुए सूरज को अर्पण करती है।
इसके पश्चात नदी और तालाब के किनारे लगे हुए मेले का सभी आनंद उठाते है। यह देखने में बहुत ही सुंदर और रोचक लगता है, ऐसा लगता है कि मानो दीपावली का त्यौहार वापस लौट आया हो।
प्रसाद के रूप में इस दिन 'ठेकुआ' जिसे कुछ क्षेत्रों में 'टिकरी' भी कहते है और चावल के लड्डू, रोटी बनाई जाती है।
चतुर्थ दिवस :
चौथे दिन महिलाएं सुबह सूर्योदय से पहले उठ जाती हैं और उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देती हैं और छठी मैया की पूजा करती हैं।
इसके पश्चात व्रती महिलाएं कच्चे दूध का शरबत और प्रसाद खाकर अपना व्रत पूरा करती है जिसे “पारण” या “परना” कहा जाता है।
पौराणिक कथा व परंपरा के अनुसार आप को बताते हैं, कौन हैं छठ मैया?
पौराणिक कथा :
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, छठ पूजा में होने वाली छठी मैया भगवान ब्रह्माजी की मानस पुत्री और सूर्यदेव की बहन हैं। इन्हीं मैया को प्रसन्न करने के लिए छठ पूजा का आयोजन किया जाता है। पुराणों के अनुसार, जब ब्रह्माजी सृष्टि की रचना कर रहे थे, तब उन्होंने अपने आपको दो भागों में बांट दिया था। ब्रह्माजी का दायां भाग पुरुष और बांया भाग प्रकृति के रूप में सामने आया। प्रकृति सृष्टि की अधिष्ठात्री देवी बनीं, जिनको प्रकृति देवी के नाम से जाना गया। प्रकृति देवी ने अपने आपको छह भागों में विभाजित कर दिया था और इस छठे अंश को मातृ देवी या देवसेना के रूप में जाना जाता है। प्रकृति के छठे अंश होने के कारण इनका एक नाम षष्ठी भी पड़ा, जिसे छठी मैया के नाम से जाना जाता है। बच्चे के जन्म होने के बाद छठवें दिन जिस माता की पूजा की जाती है, यह वही षष्ठी देवी हैं। षष्ठी देवी की आराधना करने पर बच्चे को आरोग्य, सफलता का आशीर्वाद मिलता है।
कैसे हुई, छठ पूजा की शुरुआत, आइए उसे भी बताते हैं...
छठ पूजा का आरंभ :
पुराणों के अनुसार, मनु के पुत्र प्रियंवद की काफी समय से कोई संतान नहीं थी, जिसको लेकर वह काफी परेशान होने लगे थे। तब महर्षि कश्यप ने संतान प्राप्ति के लिए राजा प्रियंवद और उनकी पत्नी मालिनी से एक यज्ञ अनुष्ठान करने को कहा। महर्षि कश्यप की आज्ञा से राजा प्रियंवद और रानी मालिनी ने यज्ञ किया और जिसके परिणाम स्वरूप रानी मालिनी गर्भवती हो गईं। लेकिन दुर्भाग्य से उनका बच्चा गर्भ में मर गया। जिससे राजा और उनकी रानी काफी दुखी हुए। तभी राजा ने आसमान से उतरती हुई एक चमकते पत्थर पर बैठी एक देवी को देखा।
राजा ने देवी से परिचय पूछा। तब देवी ने कहा कि हे राजन, मैं ब्रह्माजी की मानस पुत्री षष्ठी हूं और मैं ही सभी बच्चों की रक्षा भी करती हैं। मेरे ही आशीर्वाद से निसंतान स्त्रियों को संतान की प्राप्ति होती है। तुम मेरी पूजा करो और दूसरों को भी पूजा करने के लिए प्रेरित करो। तब राजा ने षष्ठी देवी की व्रत-पूजा किया, जिससे उनको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। राजा प्रियंवद ने जिस दिन इस व्रत को रखा था, उस दिन कार्तिक मास की षष्ठी थी। तब से ही छठ के त्योहार की परंपरा शुरू हुई और संतान की रक्षा के लिए छठी मैया का व्रत किया जाने लगा।
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