आज बच्चों के school में छुट्टी है, वजह - रविदास जयंती।
पर यह रविदास जी थे कौन? और ऐसा क्या विशेष था कि उनकी जयंती पर छुट्टी कर दी गई?
रविदास जी संत शिरोमणि और भक्ति रस के कवि और समाज के पथ प्रदर्शक थे।
संत शिरोमणि तो कबीरदास, तुलसीदास, मीराबाई आदि बहुत लोग थे, फिर बाकी जयंती पर तो छुट्टी नहीं होती है।
आइए, आज India's Heritage segment में उनके विषय में जानते हैं।
रविदास जयंती
रविदास जी का जन्म वाराणसी में माघी पूर्णिमा के दिन हुआ था। कहा जाता है कि उस दिन रविवार था, तो बस रविवार के कारण ही उनका नाम रविदास रख दिया गया।
कई पुरानी पांडुलिपियों में उन्हें रायादास, रेदास, रेमदास और रौदास के नाम से भी जाना गया है।
उनका जन्म एक चर्मकार के घर पर हुआ था, अतः रविदास जी भी चमड़े से सामान, जूते आदि बनाने का ही कार्य करते थे।
वह जात से चमार थे और उस समय जात-पात को लेकर विभिन्न कट्टर नियम थे। पर उन्होंने कभी उन पर ध्यान नहीं दिया और ईश्वर भक्ति और अपने कर्म को प्रधानता दी।
उन्होंने जात-पात से जुड़ी कुरीतियों का पुरजोर विरोध किया और समानता का समर्थन किया।
उनका मानना था, कोई भी व्यक्ति जन्म से नीच नहीं होता है, बल्कि अपने दुष्कर्मों से नीच होता है। और यह बात उन्होंने अपने जीवन में चरितार्थ भी किया, और संत शिरोमणि और समाज सुधारक कहलाए।
उनसे जुड़ी हुई कुछ घटनाएं साझा कर रहे हैं, जिनसे आप खुद कहेंगे कि कर्म ही सर्वोच्च है।
एक बार की बात है, एक राजा ने रविदास जी को अपने जूते बनाने का आदेश दिया। संत रविदास जी ने आदेश सहर्ष स्वीकार किया, क्योंकि वो तो उनका काम ही था।
रविदास जी जूता बनाने का कार्य भी ऐसे कर रहे थे, जैसे ईश्वरीय आराधना में लीन हों।
जूता लेकर वो राजदरबार में पहुंचे। जैसे ही राजा ने जूता पहनने के लिए पैर आगे बढ़ाया, एक चमत्कार हुआ और जूता सोने में बदल गया।
सब देखकर हैरान हो गए, राजा ने चमत्कार के पीछे का कारण पूछा, तो रविदास जी बोले, मैंने अपना काम पूर्ण निष्ठा और ईश्वरीय भक्ति में किया था। जो चमत्कार हुआ, वो तो ईश्वर की कृपा है।
ईश्वर की भक्ति काम करते हुए मतलब? लोगों के मन में शंका हुई, यह कैसी भक्ति?
तब रविदास जी बोले, ईश्वर की भक्ति केवल पूजा-पाठ द्वारा ही नहीं की जाती है, बल्कि निष्काम और निष्ठा से किया गया कार्य भी ईश्वर भक्ति है।
सब उनकी इस बात को सुनकर उनके भक्त हो गये।
एक और बार की बात है, संत रविदास जी अपनी झोपड़ी में जूते बनाने का काम कर रहे थे। एक दिन उनके यहां एक सिद्ध साधु पहुंचे। रविदास जी ने उस संत की बहुत सेवा की। सेवा से प्रसन्न होकर सिद्ध संत ने रविदास को एक पत्थर दिया और कहा कि ये पारस पत्थर है। लोहे की जो चीज इस पत्थर पर स्पर्श होती है, वह सोने की बन जाती है। इस पत्थर की मदद से तुम धनवान बन सकते हो।
रविदास जी ने पारस पत्थर लेने से मना कर दिया। उन्होंने कहा कि मुझे इसकी जरूरत नहीं है, मैं अपनी मेहनत से जो कमाता हूं, उससे मेरा काम हो जाता है।
रविदास जी के मना करने के बाद भी साधु ने उनकी बात नहीं मानी और उस पत्थर को झोपड़ी में ही एक जगह रख दिया और कहा कि तुम जब चाहो, इसका इस्तेमाल कर लेना। ऐसा कहकर वह संत वहां से चले गए।
काफी समय बाद वह संत फिर से रविदास जी के पास पहुंचे। उन्होंने देखा कि रविदास की स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ है, वे आज भी उसी झोपड़ी में रह रहे हैं।
रविदास जी की हालत देखकर साधु ने पूछा कि मैंने आपको पारस पत्थर दिया था, क्या आपने उसका इस्तेमाल नहीं किया?
रविदास जी ने कहा कि वह पत्थर तो वहीं रखा, जहां आप रख गए थे।
साधु ने देखा तो पारस पत्थर वहीं रखा था। साधु ने रविदास जी से पूछा कि आप इसके इस्तेमाल से धनवान बन सकते थे, लेकिन आपने ऐसा क्यों नहीं किया?
संत रविदास ने कहा कि अगर मैं धनवान हो जाता तो मुझे धन की रखवाली करने की चिंता होती। मैं दान करता तो मेरे यहां लोगों की भीड़ लगी रहती और मेरे पास भगवान का ध्यान करने का समय ही नहीं बचता। मैं जो कमाता हूं, मेरे लिए काफी है। मैं मेरे काम के साथ भगवान की भक्ति भी कर पाता हूं। मेरे लिए यही सबसे जरूरी है।
वह साधु रविदास जी की बात सुनकर प्रसन्न हो गए, उन्हें आशीर्वाद दिया और अपना पारस पत्थर लेकर लौट गए।
ऐसी और भी घटनाएं हैं, जो रविदास जी सबसे विशेष बनाते हैं, वह अगले वर्ष बताते हैं।
अभी विराम देते हुए, संत शिरोमणि रविदास जी को उनकी जयंती पर शत-शत नमन...
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