Tuesday, 7 October 2025

India's Heritage : महर्षि वाल्मीकि की सफल कहानी

भारत वर्ष की अनमोल धरोहर में अनगिनत उत्कृष्ट कोटि के रत्न हैं, जिनसे हमारी सनातन संस्कृति सर्वश्रेष्ठ कहलाती है।

आज महर्षि वाल्मीकि जी के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में India's Heritage segment की ये post उन्हीं को समर्पित है।

महर्षि वाल्मीकि जी की कहानी अत्यधिक उतार-चढ़ाव से परिपूर्ण अति-प्रेरणादायक कहानी है।

हम सभी उनके जीवन से जुड़े कुछ पहलुओं को जानते हैं, किन्तु सब नहीं।

उसके कारण उनसे जुड़े हुए कुछ विवाद भी हैं, जैसे कि वो बाह्मण हैं या निम्न जाति के?

तो चलिए, उन सभी पहलुओं पर विचार करते हैं।

महर्षि वाल्मीकि की सफल कहानी


(I) हिन्दू संस्कृति में महत्व :

भगवान राम का जीवन चरित्र हमारे देश की “संस्कृति का प्राण” है। और जहांँ प्रभू श्रीराम का उल्लेख सर्वोपरि है, वहाँ महर्षि वाल्मीकि जी का नाम तो अपने आप ही महत्वपूर्ण हो जाता है।

महर्षि वाल्मीकि, प्रभू श्रीराम के लोक कल्याणकारी चरित्र को काव्य रूप में लिखने वाले संस्कृत भाषा के पहले कवि थे। अतः उन्हें आदि-कवि भी कहा गया है।

“त्रिकालदर्शी” भगवान वाल्मीकि ज्योतिष-विद्या और खगोल-विद्या के प्रकांड विद्वान थे। साथ ही केवल वह ही हैं जिनका सतयुग, त्रेतायुग और द्वापरयुग - तीनों कालों में उल्लेख मिलता है।


(II) विवरण :

नागा-प्रजाति में जन्मे वाल्मीकि ‘प्रचेता’ (वरुण देव) के पुत्र माने जाते हैं। इनके बचपन का नाम “रत्नाकर” था। मनुस्मृति (manuscript) के अनुसार वे प्रचेता, वशिष्ठ, नारद, पुलत्स्य आदि के भाई थे। एक महान ऋषि बनने से पहले वाल्मीकि को एक विख्यात डाकू के रूप में जाना जाता था।

अब विगत-वार सब समझ लेते हैं।


(III) जन्म व बाल्यकाल :

महर्षि वाल्मीकि का जन्म अश्विन माह की पूर्णिमा के दिन हुआ था। स्कंद पुराण और अध्यात्म रामायण के अनुसार  वाल्मीकि ब्राह्मण जाति के थे और इनका नाम “अग्निशर्मा” था।

माना जाता है कि वाल्मीकि महर्षि कश्यप और अदिति के दसवें पुत्र ‘प्रचेता’ की संतान हैं। इनकी माता का नाम ‘चतुर्ष्णि’ और भाई का नाम ‘भृगु’ था।


(IV) अपहरण :

एक किवंदती के अनुसार, जब वाल्मीकि जी का जन्म हुआ, उसी समय वहाँ से विचरण करती हुई एक निःसंतान भीलनी निकली।

वाल्मीकि को देखते ही उसके अंदर वात्सल्य-भाव जागृत हो गए, और वो उनका अपहरण करने से अपने को रोक नहीं पाई।

वह वाल्मीकि को अपने साथ वन‌ में ले गई। उनको पाकर, उस पर से निःसंतान होने का अभिशाप हट गया, अतः उसके लिए, वो किसी रत्न से कम न थे। यही कारण था कि उसने उनका नाम प्यार से “रत्नाकर” रखा। भीलनी ने बड़े प्रेम से रत्नाकर का लालन-पालन किया। रत्नाकर के लालन-पालन के लिए भीलनी बुरे काम (दस्यु कर्म) किया करती थी जिसका प्रभाव व्यापक रूप से रत्नाकर के जीवन पर पड़ा।


(V) युवावस्था :

जब रत्नाकर बड़े हुए तो उनका विवाह भी भील समुदाय की एक भीलनी से कर दिया गया। अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिए रत्नाकर भी दस्यु कर्म ही किया करते थे। वह लोगों का धन लूटा करते थे। वन के मध्य में पथिकों का धन लूटना उनकी जीविका का साधन था। यदि धन लूटने के काम में संदेह हो तो वे हत्या करने में भी संकोच नहीं करते थे। इस तरह से अग्निशर्मा जो कि आगे चलकर वाल्मिकी कहलाए, अपनी युवावस्था में डाकू रत्नाकर के नाम से प्रसिद्ध हो गए। 


(VI) व्यक्तित्व में परिवर्तन :

इस समय का घटनाक्रम ध्यानपूर्वक पढ़िएगा, क्योंकि जो अनुभूति रत्नाकर को इस समय हुई थी, वो ही थी, जिसने क्रूर और दुष्कर्म में लिप्त डाकू रत्नाकर को प्रभू श्रीराम का परमभक्त और महर्षि वाल्मीकि बना दिया।

कहा जाता है कि एक बार वे वन में बैठे राहगीर का बेचैनी से इंतजार कर रहे थे और उन्होंने एक मुनिवर को आते हुए देखा, देखते ही वे फूले न समाये।

अपने लाल-लाल नेत्रों को घुमाते हुए रत्नाकर ने भयंकर स्वर में कहा - “तुम्हारे पास जो कुछ भी है, सब मुझे दे दो। नहीं तो तुम्हारे प्राणों का संकट होगा।”

मुनिवर ने उत्तर दिया - “लुटेरे, मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। लेकिन तुम इस लूटे हुए धन का क्या करते हो? दूसरों को लूटना पाप कर्म है। क्या तुम यह नहीं जानते?”

रत्नाकर ने जवाब दिया - “लूटे हुए धन से मैं अपने परिवार का पालन-पोषण करता हूँ जो एक महान कार्य है।”

मुनिवर ने कहा - “पाप द्वारा कमाए गए धन से पाले हुए तुम्हारे परिवार के सदस्य क्या तुम्हारे इस पाप के भागीदार होंगे?”

रत्नाकर बोले - “नहीं जानता, लेकिन उनसे पूछ कर बताऊँगा।”

रत्नाकर ऋषि को पेड़ पर रस्सी से बांधकर कुटुंबियों से पूछने चले गये। 

जब उसने यह प्रश्न अपने कुटुंबियों से किया, तो वे क्रुद्ध होकर बोले - “तुम्हारे पाप का भागीदार हम क्यों बनेगें? 

हमें क्या पता तुम यह धन कैसे कमाते हो? हमने तो नहीं कहा था कि तुम दुष्कर्म करो।”

यह सुनकर रत्नाकर अत्यंत दुखी हुआ। शीघ्र जाकर उसने मुनिवर को खोलकर सारी बात बताई।


(VII) भक्ति की ओर अग्रसर :

अपने कुटुंबियों की बात सुनकर रत्नाकर को बेहद दुख हुआ। मुनिवर ने उसके शोक को शांत करने के लिए “राम” नाम जपने का उपदेश दिया। यह मुनिवर कोई और नहीं, स्वयं नारद मुनि जी ही थे।

अब रत्नाकर ठहरे डाकू, तो राम शब्द के उच्चारण में उन्हें बहुत कठिनाई हो रही थी। अतः असमर्थ रत्नाकर ने राम शब्द को उल्टा “मरा-मरा” जपना प्रारंभ किया। 

बहुत वर्षों तक साधना में लीन होकर उन्होंने कठोर तप किया और “मरा-मरा” जपते-जपते वे इतने लीन हो गए, कि वह शब्द “राम-राम” में परिवर्तित हो गया।

रत्नाकर राम नाम के तप में इतने लीन हो गए कि उन्हें अपनी सुध-बुध ही नहीं रही, उनके पूरे शरीर में दीमकों ने अपना घर बना लिया और वो मिट्टी से पूरी तरह ढक गए।

लंबे समय बाद वरुण देव के लगातार जल की धारा से उनके शरीर से दीमकों की मिट्टी धुल गयी। उनका शरीर पुनः प्रकट हुआ, तब मुनियों ने उनकी स्तुति और पूजा की।

वे आंखें खोलकर उठ बैठे। दीमकों की मिट्टी से निकलने के कारण वाल्मीकि "प्रचेता" (वरुण) के द्वारा मिट्टी के धुल जाने के कारण "प्रचेतस" कहलाए। इसका वर्णन रामायण के उत्तरकांड में वाल्मीकि द्वारा किया गया है, जिसमें लिखा गया है - “हे राघव पुत्र! मैं प्रचेता का दसवां पुत्र हूँ।”


(VIII) रामायण की रचना :

वाल्मीकि ने मुनि नारद से भगवान राम का लोक कल्याणकारी चरित्र सुना।

जब उन्होंने रामचरित्र को सुना, तब से उनके मन में राम के चरित्र को काव्यबद्ध करने की इच्छा जाग उठी। 

पर उनके मन में यह इच्छा रामचरित्र सुनकर जाग्रत हुई, या इसलिए जाग्रत हुई, क्योंकि नियति ने आगे चलकर उन्हें ही यह यश प्रदान करना था, आइए देखते हैं। 

एक बार की बात है कि वाल्मीकि दोपहर के स्नान के लिए प्रयाग मंडल के अंतर्गत तमसा नदी पर गए हुए थे। वन की शोभा को देखते हुए महामुनि ने स्वच्छंद घूमते हुए एक क्रौंच पक्षी के युगल को देखा। वह रतिक्रीड़ा कर रही थी।

अचानक किसी शिकारी ने उस युगल पक्षी के जोड़े पर बाण मार दिया। भूमि पर गिरे हुए खून से लथपथ नर क्रोंच को देखकर क्रोंची करुण-विलाप करने लगी। इस करुण विलाप को सुनकर मुनि के हृदय में छिपी शोकाग्नि से पिघला हुआ करुण रस श्लोक के बहाने इस प्रकार निकल पड़ा :

    “मा निषाद प्रतिष्ठां त्वगमः शाश्वती समः।

    यत्क्रोंचमिथुना देवकम अवधिः काम मोहितम्।।”

इसका अर्थ है कि “हे शिकारी! तू चिरकाल तक रहने वाले सुख को कभी प्राप्त नहीं कर पाएगा, क्योंकि तूने काम में मुग्ध अर्थात् काम-क्रीडा में रत क्रोंच के जोड़े में से नर क्रौंच को मार डाला।

यह श्लोक वेद से पृथक लोक में छंद का नया जन्म था।

शिकारी को श्राप देने के बाद वाल्मीकि के हृदय में महान चिंता जाग गई। उन्होंने महसूस किया कि पक्षी के शोक से पीड़ित मैंने यह क्या कर दिया।

इसी बीच ब्रह्मा ने वाल्मीकि के पास जाकर मुस्कुराते हुए कहा - “हे मुनि! पीड़ित पर दया करना महापुरुषों का स्वाभाविक धर्म है। श्लोक बोलते हुए तुमने उसी धर्म का पालन किया है। तुम्हें इस विषय में चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है।”

ब्रह्मा जी ने कहा - “सरस्वती मेरी इच्छा से ही तुम्हारी जिह्वा में विराजती हुई थी। अब तुम्हें वह काम करना है जो तुमने नारद मुनि से सुना है। तुम भगवान रामचंद्र जी के संपूर्ण चरित्र का ऐसा वर्णन करो कि जब तक पृथ्वी, पर्वत, नदी और समुद्र रहेंगे, तब तक संसार में रामकथा चलती रहेगी। मेरी कृपा से तुम्हें संपूर्ण राम चरित्र ज्ञात हो जाएगा।”

ऐसा आदेश देकर ब्रह्मा जी अंतर्ध्यान हो गए।

इसके बाद वाल्मीकि ने योगबल से नारद जी के द्वारा बताये गए संपूर्ण रामचरित को जानकर गंगा और तमसा के मध्य स्थित तट पर “सात कांडों” वाले “रामायण” नाम के इस महाकाव्य की रचना की। इस प्रकार महामुनि महर्षि वाल्मीकि संसार में “आदिकवि” के यश से प्रसिद्ध हो गए।


(IX) संक्षिप्त में जानकारी :

तो यह थी बाह्मण परिवार मे जन्म लेने वाले एक छोटे से बच्चे की कहानी, जिसका बचपन में ही अपहरण हो गया, और वो भील के रूप में बड़ा होकर डाकू बना, मतलब जन्म से ब्राह्मण और कर्म से दुष्कर्म करने वाला डाकू। आगे पुनः एक और मोड़, जो ले गया सर्वश्रेष्ठ महर्षि और परम भक्त बनाने की ओर, जिससे अग्नि शर्मा, रत्नाकर और अंत में महर्षि वाल्मीकि कहलाए।

जब तक पूरी सृष्टि में प्रभू श्रीराम का नाम है, रामायण का शुभ काम है, तब तक महर्षि वाल्मीकि जी भी अपने काव्य के रूप में इस संसार में विद्यमान हैं।

वैसे एक और interesting fact है, कि महर्षि वाल्मीकि जी ही अगले जन्म में तुलसीदास के रूप में धरती पर आए थे, और उन्होंने रामचरितमानस की रचना अवधी भाषा में की। इससे जन-जन तक प्रभू श्रीराम का लोक कल्याणकारी चरित्र पहुंच गया और सबको मौका दिया कि वो प्रभू श्रीराम से जुड़ सकें और उनकी कृपा को पा सकें। 

मतलब महर्षि वाल्मीकि जी एक जन्म में ही नहीं, अपितु दोनों जन्म में भगवान श्री राम के भक्त रहे और उनके दोनों जन्म में ही उन पर प्रभू श्रीराम की कृपा रही कि उन्होंने दो बार प्रभू श्रीराम के जीवन का चित्रण किया।


जय श्रीराम 🚩🙏🏻


Disclaimer:

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