Monday, 15 December 2025

Poem : घना-सा तुषार

आज सुबह जब 5:30 बजे उठे तो कुहासे का असर इस क़दर छाया था, कि लग ही नहीं रहा था कि भोर की पहली बेला निकल चुकी है, ऐसा ही हाल कुछ (सुबह के) 7:30 बजे तक था।

घना-सा तुषार


घना-सा तुषार है छाया,

कर को कर नहीं सुहाया,

बीत चुकी है रात्रि बेला पर 

तिमिर अभी भी है समाया।


यह है हेमंत का असर,

या प्रदूषण हो रहा प्रखर,

ठप हो रहे काज सारे

कुछ न आ रहा नज़र। 


पर क्या ऐसा प्रकृति ने था सोचा, 

या है हमारे तृष्णा का परिणाम,

अंतहीन पाने की चाह ने 

ला दिया है ऐसा अंजाम।


जो बोयेगें, हम इस क्षण में,

वही तो नौनिहाल पाएंगे,

उनको सुख देने की लालसा में 

उनके लिए कंटक की सेज सजाएंगे।


जो दिया है सृष्टि ने,

उसे वैसे ही करो प्रयोग,

तभी उत्तरकाल में बना रहेगा 

सुख-सम्पन्नता का सुयोग।