मिनी
शादी होकर आई,
तो सबमें बहुत जल्दी घुलमिल गयी। कब मैं अपनी ससुराल में बहू से बेटी बन गयी,
पता ही नहीं चला। मेरा पूरा ससुराल बहुत ही अच्छा था। मिनी और मनीष मेरे दो प्यारे
बच्चे थे। उनके होने के बाद तो मेरे जीवन का जैसे मकसद ही बदल गया।
मेरे ज़िंदगी की धुरी
बच्चों के इर्द-गिर्द ही घूमने लगी। पर बाप रे! बच्चों को पालने को अगर त्रिदेव को
भी बोल दिया जाए, तो शायद वो भी यही सोचेंगे कि किसी स्त्री का
निर्माण कर दिया जाए। जी हाँ, बच्चों को अच्छे संस्कारों के साथ बड़ा करना हो तो
स्त्री के धैर्य के बिना वो संभव ही नहीं है।
मिनी जब स्कूल से लौटती,
तो मैं उसे खाना खाने को दे दिया करती थी, पर मजाल है, कि जब तक 20 से 25 बार ना बोल दूँ ”मिनी
खाना खत्म करो” और उसका खाना खत्म हो जाए। पर उसके बाद भी वो पूरे 2 घंटे में खाना
खत्म करती। कितनी ही बार ऐसा होता था, कि मेरा धैर्य जवाब दे जाता,
कि इसका खाना तो दिन भर में खत्म नहीं होने वाला, और मैं खुद खिलाने बैठ जाती।
यही हाल मनीष का भी रहा।
जब मिनी बड़ी हुई,
सब बोले उससे अपने काम में हाथ बँटवा लिया करो। सब की सुन के मैंने उसे
कुछ काम देने शुरू किए, तो हे मेरे भगवान! जो काम मैं चार मिनट में खत्म कर
लेती थी, उसे मेरी लाडो रानी 40 मिनट में भी खत्म नहीं कर पाती थी।
जितनी थकान मुझे काम कर के नहीं होती थी, उससे ज्यादा उसे देख कर होने लगती थी,
कि काम ना जाने कब खत्म होगा। और फिर मैं खीज़ कर सारे काम खुद ही खत्म कर दिया करती थी। मिनी को तो काम के लिए तब ही
आवाज़े लगती थी, जब मैं बीमार हुआ करती थी।
मिनी के पिता और बाकी सब
के कहने से मिनी काम तो करना सीख गयी थी, पर काम को खत्म करने की स्पीड उसकी बड़ी स्लो थी।
मेरी ज़िंदगी में वो दिन भी
आया, जब मिनी का विवाह सम्पन्न हो गया,
और वो अपने घर चली गयी। कुछ ऐसा रहा, कि शादी के बाद मैं कभी उसके घर नहीं जा पाई। जब भी आई,
मिनी ही आई।
पर आज उसके बेटे की पहली सालगिरह थी। उसका व
दामाद जी दोनों का फोन आया था। माँ आप आज नहीं आयीं तो हम भी कभी नहीं आएंगे।
आपकी, ऋषिता के पहले जन्मदिन पर तबीयत ठीक नहीं थी, इसीलिए हम मान गए थे,
पर अगर आप इस बार नहीं आयीं, तो हम हमेशा के लिए गुस्सा हो जायेंगे। याद रखियेगा माँ,
फोन रखते रखते मिनी बोली।
मिनी के पापा ने वादा किया
कि इस बार सब आएंगे। आज पहली बार मैं मिनी के घर गयी थी। देखा वो भी मेरी ही तरह चकरघिन्नी बनी घूम रही थी। और मैं साथ में ये देखकर दंग रह गयी,
कि मेरी मिनी तो मुझ से भी ज्यादा तेज़ी से सारे काम निपटा रही थी। तभी वो नन्ही
ऋषिता को मेरे पास बैठा गयी, और बोली माँ इसे- "खाना खाओ,खाना खाओ",
बोलती रहिएगा, तभी इसका खाना 2 घंटे में खत्म होगा। माँ, ये मुझे
खाना खाने में रुलवा, खिजवा देती है। आप इसे देखिएगा,
मैं तब तक सारे काम निपटा दूँगी।
मिनी को देख कर लगा,
जैसे मेरा सारा अतीत घूम गया था। और मुझे ये सोचने पर मजबूर कर दिया,
सभी बच्चे सब कुछ धीमे- धीमे ही करते हैं, स्पीड तो अभ्यास से आती है। हमारी भी ऐसी ही आई होगी,
और हमारे बच्चों में भी वैसे ही आएगी। कहीं भी जादू नहीं होता है,
धैर्य रखें, खीजें नहीं, बल्कि बच्चों को प्रोत्साहित करें।उन्हें कार्य समय से कैसे किया जाए वो करना सिखाएँ, वो भी बहुत ही प्यार से।
सच आज मेरी मिनी बड़ी हो
गयी थी, और मुझसे ज्यादा होनहार भी।