डर के साये में
डर के साये में सब,
कुछ यूँ, जी रहे हैं;
कुछ यूँ, जी रहे हैं;
जिसमें अगले पल का भी
कुछ इल्म ही नहीं है।
कभी प्रदूषण डरा रहा
है,
कभी दंगों से खौफ़ज़दा हैं;
कुछ जान बच गयी थी,
तो कोरोना आ धमका है ।
सब काम बंद है,
बाज़ार भी तो ठप्प है;
बच्चे खेलने को तरस रहे
हैं,
साहब ऑफिस ना जाने से,
घर में ही बरस रहे हैं ।
मेमसाहब को भी,
बस एक बात का डर है;
बस एक बात का डर है;
कहीं कामवाली बैठ ना जाए,
तो हो जाएगी कहर है ।
इन सब बंद के आलम में,
क्या कोई बता सकता है:
कब तक रहेगी,
सब के घर रसद* है?
इतना इस समय हर एक करना,
अन्न को बिल्कुल नष्ट मत
करना;
जिस-जिस देश में अन्न
बचेगा,
जहां में बाकी बस उसका ही अस्तित्व रहेगा।
*रसद = राशन
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