आज आप सब के साथ मुझे इंदौर से श्रीमती उर्मिला मेहता जी के आलेख को साझा करते हुए अपार प्रसन्नता हो रही है।
उर्मिला जी ने अपनी लेखनी से कालीदास और विद्योत्तमा के प्रेम को बखूबी उकेरा है, साथ ही यह बताया है कि आज के परिप्रेक्ष्य में वो कितना अनुकरणीय है।
आइए इसका आनन्द लें।
एक बेमेल पर सफल विवाह
कहा जाता है विद्योत्तमा विक्रमादित्य की रूपवती, गुणवती एवं विदुषी पुत्री थी ।
वह सभी शास्त्रों,वेदों,पुराणों आदि में निष्णात थी विवाह के संबंध में उसकी यह शर्त थी कि जो विद्वान पुरुष उसे शास्त्रार्थ में हरा देगा उससे वह विवाह कर लेगी ।
अन्यथा उसे अपना अनुचर बना लेगी। एक के बाद एक अनेक पंडित उसे शास्त्रार्थ में पराजित कर परिणय करने की आकांक्षा से आए, पर सभी पराजित हो गए।
क्षुब्ध होकर प्रतिशोध की भावना से प्रेरित होकर उन पराजित पंडितों ने विद्योत्तमा का विवाह किसी महामूर्ख से करने का सोचा जिससे उसे अर्थात विद्योत्तमा को आजीवन पति की मूर्खता का दुख झेलना पड़े ।
उन्होंने कालिदास को शास्त्रार्थ के लिए प्रस्तुत किया । कालिदास के मौन व्रत धारण का साधन साध कर उन पंडितों ने विद्योत्तमा से उनका शास्त्रार्थ करवाया।
कालिदास द्वारा विद्योत्तमा की एक अंगुली का उत्तर दो अंगुलियों से तथा पांच अंगुलियों का उत्तर मुट्ठी बांधकर प्रदर्शित किया गया।
जिसे पंडितों ने इस प्रकार विश्लेषित किया कि ईश्वर एक है पर उसकी उपासना सगुण तथा निर्गुण दो प्रकार से की जाती है इसी प्रकार मुट्ठी का यह विश्लेषण किया गया कि यद्यपि महाभूत 5 हैं परंतु उन सब से ही एक शरीर का निर्माण होता है अकेला कोई भी महाभूत अपने आप में सक्षम नहीं है।
विद्योत्तमा उन पंडितों की व्याख्या के जाल में फँस गई और कालिदास की विद्वता के सम्मुख नतमस्तक हो गई ।
फल स्वरूप कालिदास और विद्योत्तमा का परिणय हो गया ।
कहते हैं कि विवाह की प्रथम रात्रि को ही जब कहीं से ऊँट के बोलने की आवाज आई तो विद्योत्तमा कालिदास से बोली, उष्ट्रः वदति कालिदास तो जन्म से जड़मति थे। दो-तीन बार कहने पर भी उट्र उट्र कहने लगे।
विद्योत्तमा को कुछ अंदाज पहले भी था कि कालिदास इतने विद्वान नहीं हैं जितना उन्हें दर्शाया जा रहा है परंतु लोक लाज अथवा अपनी शर्त के कारण वे अधिक कुछ बोल नहीं सकी अब जब उनका विवाह हो गया और कालिदास उट्र उट्र कहने लगे तो उनकी मूर्खता का ज्ञान विद्योत्तमा को पूरी तरह से हो गया ।
उन्होंने विवाह को तो अंगीकार कर लिया पर कालिदास को पति रूप में उस समय तक स्वीकार नहीं किया जब तक कि वे विद्वान एवं प्रकांड पंडित नहीं हो जाते, यह उसके स्वाभिमान एवं पराजित पंडितों के अहंकार को प्रत्युत्तर देने की चुनौती थी।
स्त्री पुरुष की प्रेरणा होती है, इसी रूप में उन्होंने कालिदास को ज्ञानी पंडित और अपने समकक्ष विद्वान बनाने का बीड़ा उठाया।
कालिदास भी अपनी पत्नी की विद्वत्ता के सम्मान में तथा स्वयं को पत्नी के अनुरूप निर्मित करने के कार्य में जुट गए, मां काली की अनुकंपा एवं स्वयं के स्वाध्याय से जड़मति कालिदास महाकवि कालिदास के रूप में रूपांतरित हो गए।
निश्चित ही विद्योत्तमा को इसका पूरा पूरा श्रेय जाता है। कहते हैं कि जब कालिदास संस्कृत के प्रकांड पंडित हो कर घर लौटे तो द्वार पर ही विद्योत्तमा ने उनसे पूछा ,'अस्ति कश्चित् वाग् विशेष ?' कालिदास ने विद्योत्तमा के इन तीन वाक्य खंडों से तीन काव्यों की रचना की।
अस्ति से कुमारसंभव कश्चित् से मेघदूत तथा वाग् विशेष से रघुवंशकी रचना की ।
कुमारसंभव में कार्तिकेय, रघुवंश में रघुकुल तथा मेघदूत में यक्ष तथा रूपवान यक्षिणी का वर्णन है ऐसा माना जाता है कि यक्षिणी के वियोग का वर्णन और कुछ नहीं वरन् विद्योत्तमा से कालिदास के वियोग का वर्णन है। (जब कालिदास विद्वान बनने हेतु विद्योत्तमा से अलग रहे थे)।
विद्योत्तमा और कालिदास के विवाह को यदि आधुनिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो बहुत सी अनुकरणीय बातें हमें ज्ञात होती हैं जैसे कि एक बार विवाह हो जाने पर उसका जीवन भर निर्वाह करना चाहिए। ,
दूसरा पति अथवा पत्नी में से एक के भी योग्य अथवा समकक्ष या अनुकूल ना होने पर दूसरे साथी को अपने तुल्य या अनुकूल बनाने का प्रयास करना चाहिए।
तीसरा पति अथवा पत्नी को जो भी उनमें सहयोग करने योग्य हो शेष अयोग्य साथी को योग्य बनाने की प्रेरणा देकर योग्य बनाना चाहिये।
साथ ही उसके सद् गुणों को उभारने में सहयोग करना चाहिये ना कि उसकी खिल्ली उड़ाना या विवाह विच्छेद जैसा अनुचित निर्णय लेना।
कहते हैं कि कालिदास के देहावसान के पश्चात् कुमार संभव के सातवें अथवा आठवें सर्ग के बाद उक्त काव्य को विद्योत्तमा ने ही पूर्णता प्रदान की ।
परंतु यह अत्यंत दुख का विषय है कि इतनी विदुषी स्त्री होते हुए भी विद्योत्तमा का नाम साहित्य में कहीं भी उपलब्ध नहीं है जैसे कि गार्गी, मैत्रैयी तथा अन्य विदुषी स्त्रियों का महत्व पूर्ण स्थान नहीं है।
यह पुरुष प्रधान सामाजिक संरचना का का ही प्रतिफल हो सकता है।
कहा यह भी जाता है कि कालिदास रचित ग्रंथ वास्तव में विद्योत्तमा द्वारा ही लिखे गए हैं, ताकि विद्योत्तमा अपने पति की सम्मानजनक स्थिति को स्थापित कर सके साथ ही अपने आत्म सम्मान के साथ भी न्याय कर सके ।जो भी हो इस विषय में अनुसंधान की महती आवश्यकता है।
सकारात्मक सोच विपरीत परिस्थितियों को भी अनुकूल बना सकती है। श्रीमती उर्मिला मेहता जी ने कालिदास एवं विद्योत्तमा के बेमेल विवाह के वृतांत द्वारा इस विषय को न सिर्फ बखूबी उकेरा है अपितु समाज में वृहद रूप से व्याप्त इस समस्या का हलप्रदान करने का भी एक खूबसूरत प्रयास किया है। कुल मिलाकर एक विचारोत्तेजक एवं सकारात्मक लेख।
ReplyDeleteश्री देवेन्द्र भाई साहब हार्दिक धन्यवाद ।आपके समीक्षात्मक विश्लेषण ने मुझे लिखने के लिये प्रोत्साहित किया है ।
Deleteअनीमिका जी बहुत अच्छे चित्र के साथ मेरी रचना प्रकाशित करने के लिये हृदय के अन्तर्तम से धन्यवाद ।
ReplyDeleteइतिहास के पन्नों से उकेरा, महाकवि कालिदास के जीवन का अभिन्न हिस्सा, जो आज के परिप्रेक्ष्य में भी उतना ही सार्थक है।
Deleteइतने उत्कृष्ट आलेख के लिए चित्र भी उस स्तर का होना चाहिए,यही प्रयास किया है।
आप ने इस परिवार की सदस्य बन कर हमें कृतार्थ किया है, उसके लिए ह्रदय से अनेकानेक आभार 🙏
बहुत खूबसूरती से आपने विद्योत्तमा के पक्ष को वर्णित किया है। इससे आपकी लेखनी प्रतिभा बखूबी झलकती है। trial इतना सुंदर है तो picture बेहद अच्छी होगी।
ReplyDeleteबहुत खूबसूरती से आपने विद्योत्तमा के पक्ष को वर्णित किया है। इससे आपकी लेखनी प्रतिभा बखूबी झलकती है। trial इतना सुंदर है तो picture बेहद अच्छी होगी।
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