आज मुझे इस कविता को, काव्य बद्ध करने की प्रेरणा, मेरी प्रिय सखी ऋतु श्रीवास्तव द्वारा भेजे गए इस चित्र और सुबह के विवरण के लिए लिखी गई पंक्तियों से मिली है।
तो प्रिय सखी, आज की यह कविता आप के ही नज़र
तो प्रिय सखी, आज की यह कविता आप के ही नज़र
कितना कुछ खोते हैं
जब हम सुबह
देर तक सोते हैं,
कभी सोचा है
कितना कुछ खोते हैं?
खोते हैं एक,
खुशनुमा सुबह।
जो देती हैं जिन्दगी को,
जीने की वजह।।
खोते हैं हम,
पक्षियों का कलरव।
जिन्दगी से भरा हुआ,
सबसे मीठा स्वर।।
खोते हैं हम,
पक्षियों के झुंड का दृश्य।
दिखती है एकता वहीं,
मनुष्यों में तो हो गई अदृश्य।।
खोते हैं हम,
मौसम की ठंडी सरगोशी।
जो चंचल मन को छूते ही,
दे देती ठहराव सी खामोशी।।
खोते हैं हम,
शुद्ध प्राण वायु।
जिसका ही नतीजा है,
हो रही है कम आयु।।
कितना कुछ मिलता है,
हमें सुबह सवेरे।
जिसके लिए हम,
कुछ भी नहीं चुकाते हैं।
फिर क्यों इतना कुछ,
मात्र चंद घंटों की,
नींद के लिए गंवाते हैं?
शुक्रिया अनु..🙏...बहुत ही ख़ूबसूरती से तुमने मेरी चंद लिखी पंक्तियों को एक सुंदर और सार्थक कविता का रूप दे दिया। शीर्षक “कितना कुछ खोते हैं” हमें भविष्य के लिए सतर्क करता है...प्रकृति के महत्व को दर्शाती ये कविता...यक़ीनन क़ाबिल ए तारीफ़ है...शुभकामनाएँ ..ऋतु ।
ReplyDeleteअनेकानेक धन्यवाद ऋतु 🙏....
Deleteप्रेरणा मिली ही इतनी खूबसूरत थी कि अक्षर स्वतः ही काव्य बद्ध हो गये।
आपका पुनः अनेकानेक धन्यवाद 🙏
बहुत सुंदर अनामिका जी..
ReplyDeleteआपके सराहनीय शब्दों का अनेकानेक धन्यवाद
DeleteBeautiful poem
ReplyDeleteNs
Thank you very much Ma'am for your valuable words
Delete