Friday, 6 March 2020

Stories of Life: स्नेह भवन (भाग -6)

स्नेह भवन (भाग -1)......
स्नेह भवन (भाग -2) ......
स्नेह भवन (भाग -3) .....

ऋषि और नीरजा ने office  से थोड़ा जल्दी निकलकर बाहर dinner  करने का plan  बनाया था। 

सोचा था, बच्चों को अम्मा संभाल लेंगी।  मगर घर में घुसते ही दोनों हैरान रह गए।

बच्चों ने घर को गुब्बारों और झालरों से सजाया हुआ था।

वहीं अम्मा ने नीरजा  की favorite dishes  और cake  बनाए हुए थे। इस surprise birthday party  , बच्चों के उत्साह और अम्मा की मेहनत से नीरजा  अभिभूत हो उठी और उसकी आंखें भर आईं।

इस तरह के VIP Treatment  की उसे आदत नहीं थी और इससे पहले बच्चों ने कभी उसके लिए ऐसा कुछ ख़ास किया भी नहीं था।

बच्चे दौड़कर नीरजा  के पास आ गए और जन्मदिन की बधाई देते हुए पूछा, “आपको हमारा surprise  कैसा लगा?”

“बहुत अच्छा, इतना अच्छा, इतना अच्छा… कि क्या बताऊं…” कहते हुए उसने बच्चों को बांहों में भरकर चूम लिया।

“हमें पता था आपको अच्छा लगेगा. अम्मा ने बताया कि बच्चों द्वारा किया गया छोटा-सा प्रयास भी मम्मी-पापा को बहुत बड़ी ख़ुशी देता है, इसीलिए हमने आपको ख़ुशी देने के लिए ये सब किया.”

नीरजा की आंखों में अम्मा के लिए कृतज्ञता छा गई. बच्चों से ऐसा सुख तो उसे पहली बार ही मिला था और वो भी उन्हीं के संस्कारों के कारण।

cake  कटने के बाद स्नेहा जी ने अपने पल्लू में बंधी लाल रुमाल में लिपटी एक चीज़ निकाली और नीरजा की ओर बढ़ा दी।

“ये क्या है अम्मा?”

“तुम्हारे जन्मदिन का उपहार.”

नीरजा  ने खोलकर देखा तो रुमाल में सोने की बालियाँ थी.

वो चौंक पड़ी, “ये तो सोने की मालूम होती है।”

“हां बेटी, सोने की ही है. बहुत मन था कि तुम्हारे जन्मदिन पर तुम्हें कोई तोहफ़ा दूं।

कुछ और तो नहीं है मेरे पास, बस यही बालियाँ है, जिसे संभालकर रखा था। मैं अब इसका क्या करूंगी।

तुम पहनना, तुम पर बहुत अच्छी लगेगी।”

नीरजा को याद आया, स्नेहा जी जब आयीं थीं, उनके कान में सोने की बालियों के अलावा और कोई सोने की चीज़ नहीं थी। 

पर उसके घर आने के कुछ दिन बाद से उन्होंने बालियाँ पहनना बन्द कर दिया था, शायद तब से ही उनके मन में यह बात होगी। 

नीरजा की अंतरात्मा उसे कचोटने लगी. जिसे उसने लाचार बुढ़िया समझकर स्वार्थ से तत्पर हो अपने यहां आश्रय दिया, उनका इतना बड़ा दिल है, कि अपने पास बचे इकलौते स्वर्णधन को भी वह उसे सहज ही दे रही हैं.

“नहीं, नहीं अम्मा, मैं इसे नहीं ले सकती.”

“ले ले बेटी, एक मां का आशीर्वाद समझकर रख ले. मेरी तो उम्र भी हो चली. क्या पता तेरे अगले जन्मदिन पर तुझे कुछ देने के लिए मैं रहूं भी या नहीं।”

“नहीं अम्मा, ऐसा मत कहिए. ईश्वर आपका साया हमारे सिर पर सदा बनाए रखे.” कहकर नीरजा  उनसे ऐसे लिपट गई, जैसे बरसों बाद कोई बिछड़ी बेटी अपनी मां से मिल रही हो।

वो जन्मदिन नीरजा  कभी नहीं भूली, क्योंकि उसे उस दिन एक बेशक़ीमती उपहार मिला था, जिसकी क़ीमत कुछ लोग बिल्कुल नहीं समझते और वो है नि:स्वार्थ मानवीय भावनाओं से भरा मां का प्यार। 

वो जन्मदिन स्नेहा जी भी नहीं भूलीं, क्योंकि उस दिन उनकी उस घर में पुनर्प्रतिष्ठा हुई थी.

घर की बड़ी, आदरणीय, एक मां के रूप में, जिसकी गवाही उस घर के बाहर लगाई गई वो पुरानी nameplate  भी दे रही थी, जिस पर लिखा था

           *‘स्नेह भवन *

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