पर्यावरण दिवस
कब से तड़प रही थी प्रकृति,
हरियाली को पाने को;
पर मानव की अमिट भूख,
तुली हुई थी, पर्यावरण मिटाने को।
आधुनिकता की चकाचौंध में,
सारे ही नेत्रहीन हो बैठे थे;
उचित, अनुचित का बोध छोड़कर,
खुशियों का रास्ता मोड़ बैठे थे।
प्रकृति करती रही प्रतिक्षा,
संतुलन को पाने में;
मानव उतना ही बढ़ता गया,
सब नाश की कगार पर लाने में।
दुःखी, कुपित सी धरा ने,
अब, अपना वर्चस्व दिखलाया;
भयभीत हो उठा मानव उससे,
खुद को चार दिवारी में बैठाया।
कैद में है, मानव अब जो,
प्रकृति खिलखिला रही;
धरा से अंबर तक देखो,
सर्वत्र हरियाली छा रही।
नदी की कलकल से,
ध्वनि मधुर आ रही;
पक्षियों के कलरव से,
प्रकृति मुस्कुरा रही।
जल स्वच्छ है,
वायु मनोहर;
प्रकृति मना रही,
दिवस पर्यावरण।।
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