हर ओर धुंध
हर ओर धुंध, और
कोहरा-सा है।
शरद की
कंपकंपाती शीत में,
एक अनभिज्ञ
पहरा-सा है।
हाथ को हाथ
नहीं सुहाता है,
प्रभात हो चुका है,
फिर भी अंधेरा-सा है।
रवि अपनी रश्मि संग,
है अभ्र में आया,
पर तिमिर ढलेगा कब,
रहस्य यह गहरा-सा है।
न पक्षी का कलरव,
न वृक्षों में हलचल,
न नदियों में कल-कल,
प्रकृति में मौन ठहरा-सा है।
हर ओर धुंध, और
कोहरा-सा है।
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