Saturday 21 July 2018

Poem : बूंदों की झड़ी

बूंदों की झड़ी



घिर घिर आए काले बादल
बूंदों की है झड़ी लगी
तरस रहे थे कब से सब ही  
आज आस को सांस मिली
एक एक बूंदों ने अब तो
तन मन को है भिगो दिया
नित नई लगे दुनिया सारी
बूंदों ने प्राचीन धो दिया
झूम उठे हैं वृक्ष सारे
गा रही कोयल, नाचे मोर    
चातक की प्यास बुझी तो
वो बूंदों को देखे भाव-विभोर
तभी तो सावन के मतवाले
सावन का इंतज़ार करें
बुझे प्यास धरती की भी
रियाली फिर राज करे
देख बूंदों की लड़ी
किसान का उत्साह उठा
नहीं छोड़ूँगा मैं खेती
हर्ष उल्लास से गा उठा

5 comments:

Thanks for reading!

Take a minute to share your point of view.
Your reflections and opinions matter. I would love to hear about your outlook :)

Be sure to check back again, as I make every possible effort to try and reply to your comments here.