मां का साथ (भाग -2) के आगे...
मां का साथ (भाग -3)
तुमने ठीक कहा आशना, यह मेरी गलती ही है!...
गलती... कैसी गलती? कौन हैं यह लोग...
यह लोग मेरा अस्तित्व हैं, मेरी पहचान हैं...
क्या? यह आपके मम्मी-पापा हैं? पर सारी तस्वीरें तो एक से जैसे लोगों की नहीं लग रही है, तस्वीरों को फिर से देखते हुए आशना बोली...
हां यह मेरे मम्मी पापा की ही तस्वीरें हैं। कुछ तस्वीरें उनकी हैं, जिन्होंने मुझे जन्म दिया है, साथ ही कुछ ऐसी हैं, जिन्होंने मुझे जिंदगी दी...
जिंदगी!.. मतलब? क्या आपके मम्मी-पापा, आपके बचपन में ही इस दुनिया से चले गए थे?
समझो तो वैसा ही है...
क्या कहना चाहती हैं रंजना दी? खुलकर बताइए, झुंझलाती हुई आशना बोली...
आशना, तुम्हें पता है, लड़कियां जब तक मायके में होती हैं, बच्ची ही होती हैं।
कोई जिम्मेदारी नहीं, कोई अपेक्षा नहीं, बस बच्चों की तरह हर बात पर मां-पापा की ओर देखना, फिर वो जैसे कहें, वैसा ही करना और वैसा ही सोचना...
बड़े तो हम तब हो जाते हैं, जब हमारी शादी हो जाती है, क्योंकि तब ही हमारी सोच पनप जाती है। क्या सही है क्या ग़लत, हमारा अस्तित्व, हमारी पहचान आदि...
तभी हम पर जिम्मेदारियां आती है, हमसे अपेक्षा रखी जाती है।
और हम में से बहुत उसे निभाना नहीं चाहते हैं, और मैं भी तुम्हारी तरह वैसी ही थी।
क्या मतलब?... आशना ने भृकुटी तानते हुए कहा..
मतलब मुझे भी आजादी चाहिए थी। मैं भी सिर्फ अपने पति के साथ ही रहना चाहती थी। हर काम अपनी मर्जी का, हर बात अपनी पसंद की।
अपने घर की, अपनी जिंदगी की खुद मालकिन, सास-ससुर की बात से ही सब हो, यह गवारा नहीं था मुझे।
फिर क्या हुआ? आशना ने उत्सुकता से पूछा...
होना क्या था, मेरे ऊधम मचाने से, और घर की शांति को कायम रखने के कारण, मेरे सास-ससुर व पति ने निश्चय किया कि, हम एक ही शहर में रहते हुए अलग रहें।
ऐसा होने से मुझे विजयी होने का एहसास हुआ और मैं अति प्रसन्न रहने लगी।
दिन भर सहेलियों से, रिश्तेदारों से बातें, shopping, kitty party, घूमना फिरना, बस मस्ती ही मस्ती...
जिंदगी जैसे सपनों सी थी, दिन ऐसे बीत रहे थे, जैसे फिल्मों और serials में दिखाते हैं, बस रोमांस ही रोमांस।
ऐसा लगता था कि हम दोनों, Hero and heroine हैं।
Wow! What a life... कहकर आशना की आंखें चमक गई। ऐसी ही जिंदगी की तो कल्पना कर रही थी वो...
रंजना दी, आपने सही पहचाना था, मुझे नहीं रहना अपनी सास के साथ... हर चीज़ उनके हिसाब से करो, यह मुझे नहीं जमता।
शादी करने से फायदा ही क्या? जब अभी भी दूसरों के हिसाब से ही जीना पड़े... मुझे मेरा अपना घर चाहिए, अपनी मर्ज़ी, अपनी जिंदगी...
आप की बातों में मुझे अपने सपनों की तामीर होती हुई दिखाई दे रही है।
आप मुझे बताइए ना कि आप ने ऐसा क्या कहा? क्या किया? कि आप ने एक शहर में रहते हुए भी अपनी इतनी सुन्दर दुनिया बना ली...
रंजना ने कहा, यह कौन कठिन काम है। मैं तुम्हें वो सब बता सकती हूं कि आज से कल तक में ही तुम अपनी दुनिया बसा सकती हो..
सच! रंजना दी..., आशना खुशी से झूम उठी, आज का दिन मेरी जिंदगी का सबसे खूबसूरत दिन है, और आप मेरे लिए फरिश्ता... आप बताइए ना मुझे, मैं आपकी ताउम्र शुक्रगुजार रहूंगी।
ठीक है तो सुनो...
आगे पढ़े, माँ का साथ (भाग -4) अंतिम अंक में
No comments:
Post a Comment
Thanks for reading!
Take a minute to share your point of view.
Your reflections and opinions matter. I would love to hear about your outlook :)
Be sure to check back again, as I make every possible effort to try and reply to your comments here.