अनूठी सोच (भाग -1) के आगे
अनूठी सोच (भाग - 2)
एक दिन उसने अमन से अपने प्यार का इज़हार कर दिया...
इतने दिनों के साथ से अमन भी मन ही मन श्यामली को चाहने लगा था।
पर अचानक से श्यामली का इज़हार सुनकर वो सकपका गया कि इतने बड़े घर की लड़की और मैं... कोई तैयार नहीं होगा।
उसने बड़े प्यार से श्यामली को समझाया कि जो तुम सोच रही हो, वो नामुमकिन है, कोई तैयार नहीं होगा, यह सोचकर तुम सिर्फ अपने दिल को ही दुखाओगी...
मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती...
वैसे भी आज तक मुझे किसी ने नज़र उठा के भी देखा है? एक तुम्हीं हो, जिसने मेरे मन को समझा है।
ऐसा नहीं है श्यामली, तुम इतने बड़े घर की बेटी हो, कोई भी तुम्हें अपना जीवनसाथी बना लेगा...
तो तुम क्यों नहीं?
तुम समझा करो श्यामली...
ऐसा कुछ भी तुम्हारे पापा जी को पता चलेगा, तो उन्हें लगेगा कि मैं तुम्हें पढ़ाने नहीं, बल्कि फंसाने आया था...
श्यामली के पिता, हर्षवर्धन जी ने श्यामली और अमन की सारी बातें सुन ली थी...
उन्होंने अमन से कहा, बेटा तुम्हे क्या लगता है, मुझमें इंसान पहचानने की क्षमता नहीं है?
अरे सर आप!..
बाकी तुम सही कह रहे थे, कि रुपए के बल पर मैं किसी को भी अपना दामाद बना सकता हूं।
पर वो सब मेरे पैसों से शादी करेंगे, कोई मेरी बेटी को प्यार नहीं करेगा और बिन प्यार, जीवन व्यर्थ है।
तुम पहले हो जिसने मेरी बेटी का रंग-रूप नहीं देखा बल्कि इसके गुणों को देखा। वैसे यह कहना ज्यादा उचित होगा कि ना केवल देखा, बल्कि इसके गुणों को निखारा भी है।
मैं बहुत खुश रहूंगा, अगर तुम मेरे दामाद बनोगे।
श्यामली तो मेरी इकलौती बेटी है, तो मेरी सारी धन-संपत्ति भी उसी की है और तुम्हारे सुरक्षित हाथों में मुझे उसे सौंपते हुए अत्याधिक सुकून मिलेगा।
हर्षवर्धन जी की बात सुनकर, अमन ने कहा, यह फ़ैसला तो मेरे मां-पापा ही करेंगे। मैं उन्हें कल भेज दूंगा।
आगे पढें, अनूठी सोच (भाग- 3) में...
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