अभी कुछ दिन पहले यह एहसास हुआ कि जिंदगी के अनवरत चलते रहने में सब कुछ आपका सोचा हुआ नहीं होता है।
बहुत कुछ वो भी होता है, जो कोई और सोच रहा होता है। जो उसकी इच्छा होती है। यहां "उसकी" का तात्पर्य ईश्वर से नहीं है, बल्कि उनसे है, जो आप से जुड़े हुए हों या शायद वो जिन्हें आप पहचानते भी नहीं हैं।
पर एक बात समझ नहीं आई कि जब हमें हमारे कर्मों के अनुसार फल मिलना होता है, तो दूसरे की सोची हुई इच्छा का प्रभाव हम पर क्यों पड़ता है?
हम अपने कर्मों, अपनी सोच को तो सकारात्मक रख सकते हैं, पर दूसरों की नहीं…
सकारात्मक ऊर्जा
फिर किस तरह से यह करें कि फल हमें हमारे कर्मों और हमारी सोच का मिले?
या किस प्रकार से अपने सजाए हुए सपनों को बिखरते देखकर दुखी न हों?
आखिर हम कौन से सपने संजोएं और कौन से नहीं...
या सपने संजोना ही छोड़ दें?
पर अगर सपने ही नहीं संजोएंगे, तो आगे बढ़ने की, कठिन परिश्रम करने की इच्छा भी बलवती नहीं होगी।
और न ही जिंदगी में कोई उत्साह और उमंग होगी।
मन नीरसता के गहरे अंधकार में जाता चला जाएगा...
पर क्या यह सही है?
और क्या यह सही है कि कर्म करो, फल की इच्छा न करो... वाली बात, क्योंकि कर्म तो हम कर रहे हैं और फल दूसरों के कर्म और इच्छा से भी मिल रहे हैं...
अब से एक नया अभियान शुरू किया है, सकारात्मक ऊर्जा को प्रज्वलित करने का, स्वयं की भी और अपने आस-पास मौजूद सब लोगों में भी...
एक नया प्रयोग कि क्या, जब सब लोग मिलकर एक ही विषय में सोचें तो क्या असंभव कार्य भी संभव हो सकता है...
क्योंकि जब किसी की आपके प्रति विपरीत सोच काम कर सकती हैं, तो आपके पक्ष वाली सोच भी काम करनी चाहिए…
ईश्वर से करबद्ध प्रार्थना है कि हे ईश्वर, आप मनोकामना सिद्ध करने वाले हैं, इस मनोकामना को भी पूर्ण कीजिए और हमारी भक्ति स्वीकार कीजिये। अपनी कृपादृष्टि सदैव बनाए रखियेगा 🙏🏻
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