यह एक ऐसी कहानी है, जिससे हर एक लड़की जुड़ी हुई है।
बंटवारा प्रेम का ( भाग - 4) के आगे पढें...
बंटवारा प्रेम का (भाग - 5)
खुशी बहुत पशोपेश में पड़ गई, आज तक उसने अपने पापा का कहा हुआ कभी नहीं टाला था।
पर अपने ससुर जी को मना करने की बात भी उसे उचित नहीं लग रही थी...
उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करें? तभी उसके छोटे भाई और बहन, उसके ससुराल पहुंच गए। उन्होंने खुशी को मायूस देखा तो कारण पूछा...
खुशी ने अपना असमंजस बता दिया। तीनों बोले दीदी, आप जीजू के साथ हनीमून पर जाइए, मां-पापा से हम बात कर लेंगे।
जब राजशेखर को सब पता चला तो वे आगबबूला हो गए, गुस्से से वो चिल्लाने लगे, यहाँ कोई तमाशा चल रहा है कि जब मन करेगा, तब मिलने चले जाएंगे। अगर world tour का program था, तो उन्हें पहले से बताना चाहिए था। यह क्या कि एकदम से बता दिया। हम सब के घर में खुशी के जाने की बात तो नहीं बोलते।
पर आखिरकार, सब के समझाने से वो मान गए। खुशी और अनंत world tour पर निकल गये।
1 महीने बाद, जब खुशी और अनंत लौटे तो, खुशी ने अनंत से कहा कि वो पहले मायके जाना चाहती है तो अनंत बोला, चली जाओ पर 2 घंटे में आ जाना।
मां ने कथा रखी है और सभी अड़ोसी-पड़ोसी को मुंह दिखाई के लिए बुलाया है।
खुशी जब अपने मायके पहुंची तो उसे देखकर सब बहुत खुश हो गए। पर महीने भर की दूरी और मात्र 2 घंटे! कब निकल गये, पता ही नहीं चला।
जब खुशी ने चलने की बात कही तो माँ बोली, बेटा अभी तो आई थी, कुछ देर बाद चली जाना।
माँ, वहाँ मम्मी जी ने कथा रखी है, देर हो गई तो उन्हें ख़राब लगेगा।
खुशी के मुंह से ऐसा सुनकर, मालती को कुछ क्षण ऐसा लगा, जैसे यह उनकी अपनी खुशी ही ना हो।
फिर अपने को संभालते हुए, उन्होंने उसे विदा कर दिया।
रास्ते में traffic बहुत ज्यादा था, इसलिए ससुराल पहुंचते पहुंचते देर हो गई, पंडित जी आ चुके थे।
खुशी को देर से आया देखकर, खुशी की सास वृंदा की त्योरियां चढ़ गई। उसके आते से ही बोली, बहू एक दिन तो मायके का मोह छोड़ देती। सब आ गये हैं, जल्दी से तैयार हो कर आ जाओ।
खुशी मन ही मन सोचने लगी, एक दिन नहीं एक महीना हो गया था, सबसे बिना मिले... पर उसने वृंदा जी से कुछ नहीं कहा। जल्दी से अपने कमरे में गई और तैयार हो कर कथा के लिए बैठ गई।
कुछ दिन बाद खुशी की दादी जी की तबियत बिगड़ गई, वो ख़ुशी को बहुत प्यार करती थीं।
तो राजशेखर और मालती चाहते थे कि खुशी एक हफ्ते के लिए मायके आ जाए। खुशी आई भी, पर सिर्फ दो दिन के लिए...
सबको ख़ुशी का दो दिन का आना खल गया। उसके जाने के बाद माँ बोली, हमने अपनी बिटिया की शादी, अपने ही शहर में इसलिए की थी कि बेटी नजदीक रहेगी, यह तो सिर्फ नाम के लिए ही पास है, वैसे ना जाने कितना दूर चली गई है। कभी मन भर के रूकती ही नहीं है, हमेशा कह देती है, यहीं तो रहती हूं, फिर आ जाउंगी...
उधर वृंदा जी, अपने पति से बोल रही थीं कि बहू का मायका, इसी शहर में है तो जब देखो, वहीं पहुंच जाती है। बेकार ही एक शहर की लड़की से शादी करा दी अनंत की...
अब तो हर बार यही होता, खुशी के लाख प्रयासों के बाद भी दोनों परिवार में उसके प्रेम को लेकर असंतोष ही रहता...
खुशी की स्थिति कोई नहीं समझ रहा था, वो बेचारी तो दोनों जगह में अपना प्रेम लुटाना चाहती है, पर शादी के बाद, उसके प्रेम का यूं बंटवारा कर दिया जाएगा, यह उसने कभी नहीं सोचा था।
ऐसा नहीं है कि यह स्थिति, एक शहर में मायका ससुराल होने से था, ऐसा अलग-अलग शहर होने से भी होता है।
क्या करे एक बहू, जिस परिवार से सालों जुड़ी थी, उस परिवार को, उसके सुख को, दुःख को भूल जाएं?
और क्या करे एक बेटी, जिस परिवार से जुड़ी है, उसका अटूट हिस्सा बनने के लिए, उस परिवार को अपना ना माने, उसके सुख-दुख को अपना ना माने?
आखिर क्यों एक बेटी और एक बहू से ही अपेक्षा रखी जाती है? क्या दोनों पक्ष उसकी स्थिति को समझते हुए उसके लिए दृढ़ सहायक बनकर उसके वैवाहिक जीवन को सुख से भरपूर नहीं बना सकते हैं?
आखिर कब तक होगा, बंटवारा उसके प्रेम का?
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